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________________ ८६ ] क्षपणासार [ गाथा - ६० जाते हैं । इसप्रकार अनन्तरवर्ती वर्गणाओं में विशेषहीन क्रमसे उन्हीं नवीन अपूर्वस्पर्धकोंको अन्तिमवणातक प्रदेशाग्र दिये जाते हैं, उससे द्वितीयसमय में निर्वर्तित अपूर्वस्पर्धकों की प्रथमवर्गणा में असंख्यातगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । वहांसे लेकर द्वितीयादि वर्गणाओं में सर्वत्र (पूर्व - अपूर्वस्पर्धकों की वर्गणाओं में) विशेषहीन क्रमसे प्रदेशाग्र दिये जाते हैं' । 'पढमादिसु दिस्लकमं तक्कालजक याण चरिमोत्ति । ही कम से काले होणं हीणं कर्म तत्तो ||८६|| ४८० || अर्थ — उस विवक्षितसमय में रचे गए नवीनअपूर्वस्पर्धकों की प्रथमवर्गणा से लेकर अन्तिमवर्गणातक ही क्रम से और उस विवक्षित समय से पूर्वसमयोंके अपूर्व-पूर्वस्पर्धकों की वर्गणाओं में भी अनन्तर क्रमशः हीन-हीन प्रदेशान दिखाई देते हैं । विशेषार्थ -- अश्वकर्णकरण के द्वितीय समय में की पूर्वस्पर्धकोंकी एक-एक वर्गणा में जो प्रदेशान दिखाई देता है वह नवीन अपूर्वस्पर्धकों की प्रथम - वर्गणा में बहुत और शेष सभी वर्गणाओं में अनन्तरक्रम से विशेषहीन है । तृतीयसमय में भी यही क्रम है अर्थात् जो प्रदेशाग्र दिखता है वह नवीन प्रपूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणा में बहुत तथा ऊपर अनन्तरक्रम से सभीवगंणाओं में विशेषहीन है । जो क्रम तृतीय समय में है वही क्रम प्रथम अनुभाग काण्डक के उत्कीर्ण होने के अन्तिमसमयतक उपरिमसमयों में भी है । Y इसप्रकार प्रथम अनुभाग काण्डकघात होनेपर क्या होता है सो कहते हैं-* पढमाणुभागखंडे पडिदे श्रणुभागसंतकम्मं तु । लोभादस गुणिदं उचरिं वि अांतगुणिदकमं ॥ ६०॥४८१ ॥ अर्थ - प्रथम अनुभागखण्ड के पतन होनेपर लोभकषायसे ऊपर अनन्तगुणा अनुभाग होता । इसप्रकार अनुभागसत्कर्म में अनन्तगुणा क्रम हो जाता है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २०३८ ३६ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६४-६५ सूत्र ५३६ एवं ५४०-४१ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७१-७२ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २०३६-४० ॥ ४. क० पा० सुत पृष्ठ ७६५ सूत्र ५४२ से ५४८ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७२ । 2
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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