SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षपणासार माथा ६८ ] असंख्यातगुणे प्रदेशात तृतीयसमयमें अपकर्षित होते हैं। प्रदेशाग्रके अपकर्षण होनेका यही क्रम चतुर्थादि समयों में भी है, इस प्रकार मुण श्रेणि असंख्यातगुणो है । प्रथमसमयमै जो अपूर्वस्पर्धक निर्वतित हैं द्वितीयसमय में वे भी रचे जाते हैं और उनसे असंख्यातगुणे हीन अन्य भी नवीन अपूर्वस्पर्वकों को रचना होती है। प्रथम और द्वितीय समयोंमें जो अपूर्वस्पर्धक निर्वतित हुए हैं तृतीयसमय में वे भी रचे जाते हैं (उनमें भी सदृशअनुभागवाला अपकर्षितद्रव्य दिया जाता है) और द्वितीयसमयमें रचित नवीनअपूर्वस्पर्धकोंसे असंख्यातगुणहीन नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं । यहीक्रम चतुर्थ आदि समयों में विरचित नवीन अपूर्वस्पर्धकोंके विषयमें भी जानना। 'पडमादिसु दिज्जकर्म तत्कालजफट्ठयाण चरिमोत्ति हीणकम से काले असंखगुणहीणयं तु हीणकर्म ॥८॥४७६।। अर्थ-उसी समय (काल) में रचे गए नवोन अपूर्वस्पर्धकों की आदिवर्गणासे अन्तिमवर्गणातक प्रदेशाग्न हीनक्रमसे दिये जाते हैं तदनन्तर पूर्वसमयों में रचे गये अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें असंख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है और द्वितीयादि वर्गणाओं में विशेषहीन क्रमसे दिया जाता । विशेषार्थ-द्वितीयसमयमें रचित नवीन अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें बहुत. प्रदेशाग्र दिये जाते हैं, द्वितीयवर्गणामें विशेष (चन) हीन प्रदेशाग्न दिये जाते हैं। इस. प्रकार अनन्तरवर्तीवर्गणाओं में विशेषहीन क्रमसे तबतक दिये जाते हैं जबतक नवीनअपूर्वस्पर्धकोंको अन्तिमवर्गणा प्राप्त होती है। पश्चात् उनको अन्तिम वर्गणासे प्रथमसमय में निर्वतित अपूर्वस्पर्धकोंको प्रथमवर्गणा में असंख्यातगुणे होन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं तथा उन्हीं अपूर्वस्पर्धकोंको द्वितीयवर्गणामें उससे होन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं। यहांसे लेकर अनन्तरवर्ती सभी वर्गणाओं में विशेष (चय) होन क्रमसे प्रदेशाग्र दिये जाते हैं । पूर्वस्पर्धकोंकी आदि (प्रथम) वर्गणामें विशेषहीन ही प्रदेशाग्र दिये जाते हैं शेष वर्गणामों में भी विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्न दिये जाते हैं । तृतीयसमय में विरचित असंख्यातवेंभागमात्र नबीन अपूर्वस्पर्धकोंको आदिवर्गण!में बहुत प्रदेशाग्र दिया जाता है, द्वितोयवर्गणा में विशेष (चय) हीन प्रदेशाप दिये १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६४-६५ सूत्र ५३३ से ५३५ एवं ५३७ से ५३६ तक । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७०-७१-७२।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy