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________________ ८४ ] [ गाथा ८७ अर्थ – द्वितीयादि समयों में भो अपूर्वस्वकविधि प्रयमसमयके समान है। - क्षपणासार किन्तु अनुभागबन्ध प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन होता है । विशेषार्थ - अश्वकर्णकरण के प्रथम समय में जिसप्रकार स्थितिकाण्डक अनुभागeeruse और स्थितिबन्त्र होते हैं उसोप्रकार अश्वकर्णकरणके द्वितीयादिममयों में भी होते हैं, किन्तु प्रतिसमय विशुद्धिके बढ़ने से शस्त्रप्रकृतियोंका अनुभागबन्ध अनन्तगुणाहीन होता है । चारों संज्वलनकषायका जितना अनुभागबन्ध प्रथमसमय में हुआ था उससे प्रतन्तगुणाहोन अनुभागबन्ध द्वितोयसमय में होता है, तृतीयसमय में उससे भी अनन्तगुणाहीन अनुभागबन्ध होता है। आगे प्रत्येक समय में भी अनुभागबंध अनन्तगुणा घटते हुए होता है | इसोप्रकार अनुभागोदय के विषय में जानना चाहिए । विशुद्धि के बढ़ने से प्रतिसमय श्रेणिरूप से असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र का अपकर्षणकरके गुण श्रेणी में निक्षेपण करता है । 'त्रयाण करणं पडिसमयं एवमेव वरिं तु । दव्वमसंखेज्जगुणं फयमाणं असंखगुगाहीं ॥८७॥ ४७८ ॥ अर्थ -- ( अश्वकर्णकरण के ) प्रथमसमयके समान ही प्रत्येक समय में नवीन स्पर्धकोंको रचना होतो है, किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां द्रव्य तो क्रमसे असंख्यात गुणा बढ़ता हुआ अपकर्षण करता है और नवोन स्पर्धकों की रचना असंख्यात गुणीअसंख्यात गुणीहीत होती है । प विशेषार्थ - अश्वकर्णकरणके प्रथम समय में अपकर्षितद्रव्यसे अपूर्वस्पर्धकों की रचना हुई थी, उसीप्रकार अश्वकर्णकरण के द्वितोयादिसमयों में भी अपकषितद्रव्यसे नवीन अपूर्वरकों को रचना होती है और पुराने अर्थात् पहले समयों में रचे गए अपूर्वभी अपकर्षित द्रव्य दिया जाता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रतिसमय जो प्रदेशाय अपकर्षित किये जाते हैं उनका प्रमाण असंख्यातगुणा असंख्यातगुगा होता जाना है और नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं उनको संख्या प्रतिसमय असंख्यातगुणीअसंख्यात गुगोहोन होतो जाती है । अर्थात् प्रथममें जितने प्रदेशानोंका अपकर्षण हुआ था उससे असंख्यातगुणे प्रदेशाग्रोंका अवर्षण द्वितीयसमय में होता है उससे १. कु०पा० मुल पृष्ठ ७६८ सूत्र ५२६-३० । धवल ० ६ पृष्ठ ३०० 1 ज. ध. मून पृष्ठ २०३७-३८ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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