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________________ १२४ ] लब्धिसार ... { गाथा १३८ असंख्यातगुणा हीन है। इसलिये इस चयरूप ऋण को नहीं गिमा अर्थात् द्रव्यप्रमाण लाने में इसको दृष्टिसे प्रोझल कर घटाया नहीं गया ।।१३७।। ....... ___ उस समय गुणश्रेणिशीर्ष को छोड़ कर उपरिम स्थितियों में दृश्यमान द्रव्य प्रत्येक निषेकमें विशेषहीन क्रमसे वर्तन करता है ।।१३८।। विशेषार्थ- इस मग पागकर्षित डा नव्य के बहुभागको अन्तर्मुहूर्त कम पाट वर्षों द्वारा भाजितकर वहां जो एकभागप्रमारणं द्रव्य प्राप्त हो, विशेष अधिक करके उसे इस समयके गुणश्रेणिशीर्ष में निक्षिप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे ऊपर सर्वत्र प्रतिस्थापनावलिमात्रसे अन्तिम स्थिति को नहीं प्राप्त होने तक विशेषहीनविशेषहीन द्रच्यका सिंचन करता है । इसप्रकार पाठवर्ष के स्थितिसत्कर्मवाले जीवके प्रथमसमयमें दीयमान द्रव्यकी प्ररूपणा की। अब वहीं दृश्यमान द्रब्य किंसप्रकार अवस्थित रहता है इसका निर्णय करेंगे । यथा-पलेके गुणश्रेरिणशीर्षसे इस समयका गुणश्रेणिशीर्ष असंख्यातगुणा नहीं होता है । इस समय अपकर्षित कर ग्रहण किया गया समस्त द्रव्य भी मिलकर पाठवर्ष सम्बन्धी एक स्थिति के द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजितकर जो एक भाग लब्ध आबे उतना होता है, क्योंकि माठवर्ष प्रमाण निषेकों में अपकर्षण भागहार का भाग देने पर जो लब्ध आबे तत्प्रमाण है । पुनः उसके भी असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य को ही नीचे गुणश्रेणिमें सिंचित करता है । शेष असंख्यात बहुभागको इस समय के गुरणश्रेरिगशीर्ष से उपरिम गोपुच्छायों में आगममें प्ररूपित विधि के अनुसार सिंचित करता है। इस कारण से पहले के गुणश्रेणिशीर्ष से इस समय का गुणश्रेणिशीर्ष असंख्यातगुणा नहीं हुअा, किन्तु दृश्यमान द्रव्य विशेषाधिक ही है ऐसा निश्चय करना चाहिये । विशेपाधिक होता हुआ भी असंख्यातवां भाग ही अधिक है, अन्य विकल्प नहीं है। अब इसी असंख्यातवें भाग अधिक को स्पष्ट करनेके लिये यह प्ररूपणा करते हैं । यथा अधस्तन समयके गुणश्रेणि शीर्ष का द्रव्य लाना चाहते हैं इसलिये डेढ़ गणहानि गुणित एक समयप्रबद्ध को स्थापितकर उसका अन्तर्मुहूर्त कम आठवर्ष प्रमाण भागहार स्थापित करना चाहिये । इसप्रकार स्थापित करने पर पिछले समयके गुण १. ज. प. पु १३ पृ. ६८ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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