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गाथा २३७-२३९
क्षपणासार
[२.३
दण्डं प्रथमे समये कवाटमथ चोत्तरे तथा समये । मंथानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थेतु ॥ संहरति पंचमे त्वन्तराणि मंथानमथ पुनः षष्ठे।
सप्तमके च कपाटं संहरति ततोऽष्ट मे दण्डम् ।।
प्रथमसमयमें दण्ड, अनन्तर अगले समय में कपाट, तृतीयसमय में मंधान और चतुर्थसमय में लोकव्यापी, पांचवें समय में संकोचक्रिया, छठे समयमें मथान, सातवें समयमें कपाट तथा उसका संकोच होकर आठवें समय में दण्ड हो जाता है । इसप्रकार समुदुघात प्ररुपरणा समाप्त हुई।
लोकपूरणसमुद्घातसे उतरने वाला अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थिति के संख्यातबहुभागको घानने के लिए स्थितिकार इस कार को और अप्रशस्त प्रकृतियोंके पूर्वधातित अवशेष अनुभागके अनन्त बहुभागको घासने के लिए अनुभाग काण्डकघात प्रारम्भ करता है । यहां स्थितिकाण्डकघात भोर अनुभागकाण्डकघातका उत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि लोकपूरणसमुद्घातके अनन्तरसमयसे प्रति समय एकसमयवाला स्थितिघात व अनुभागघात नहीं होता । इसप्रकारसे समुद्घातको संकोच करनेके कालमें और स्वस्थानकालमै संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डकघात हो जानेपर योग निरोध करता है।
वादरमण वचि उस्सास कायजोगं तु सुहुमजचउक्कं । रुभदि कमसो बादरसहुमेण य कायजोगेण ॥२३७॥६२८।।
सरिणविसुहुमाणि पुगणे जहण्णमणवयणकायजोगादो। कुणदि असंखगुणणं सुहुमणिपुण्णवरदोवि उस्सासं॥२३८॥६२६॥ एक्कक्कस्त ण्ठिंभणकालो अंतोमुत्तमेत्तो हु । मुहुमं देहणिमाणमाणं हियमाणि करणाणि ॥२३६॥६३०॥
अर्थ-बादर काययोगद्वारा मनोयोग वचनयोग-उच्छ्वास-काययोग, इच चारों को क्रमसे नष्ट करता है तथा सूक्ष्मकाययोगरूप होकर उन चारोंसूक्ष्म योगोंको क्रमसे
१. जयधवल मूल पृष्ठ २२७२ से २२०२ ।