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________________ परिभाषा का १० मु. पृष्ठ ७८६; जम ध० प्र० ११०६; कहा भी है -वधर्भान तो पूर्व स्पर्धक तथा हीयमान अपूर्व स्पर्षक हैं । इसप्रकार दो प्रकार के स्पर्धक जानना चाहिये । पचं सं• अमित० १/४६ प्रश्वकर्णवरण के प्रथम समय से लगाकर उसके प्रन्तिम समय पर्यन्त बराबर मह अपूर्वस्पर्धक बनाने का कार्य चलता रहता है ।१ अर्थात् अश्वकर्ण करण का अन्तमुंहत प्रमाण काल हो इसकी विधि का काल है (इसके ऊपर कृष्टिकरण का कान प्रारम्भ होता है।) ऐसा जानना चाहिये। एक-एक संग्रह कृष्टि की अनन्त अवयव कृष्टियां होती हैं । एक-एक संग्रह कृष्टि में जो अनन्त कृष्टियां होती हैं। वे ही अवयव कृष्टियां हैं । क. पा० सु० ८०६ देखो-अपवर्तनोद्वर्तनकरण को परिभाषा में। . अवयव कृष्टि अश्वकर्णकरण ६४, ८७, , प्रादोलकरण प्रायद्रव्य भावजितकरण १९८ जिस प्रकार लोक व्यवहार में जमा-खचं कहा जाता है। उसी प्रकार यहां भी प्रायव्य और ब्ययद्रव्यम्प कथन करते हैं। अन्य संग्रह कृष्टिमों का जो द्रव्य संक्रमण करके विवक्षित संग्रहकृष्टि में पाया; (प्राप्त हुमा) उसे आप द्रव्य भौर विवक्षित संग्रहकृष्टि का द्रव्य संक्रमण करके भन्य संग्रह कृष्टियों में गया उसे व्यय द्रव्य कहते हैं। केबलि समुद्रात के अभिमुख होने को प्राजित करण कहते हैं। प्रर्यात केवलिसमुद्घात करने के लिये जो प्रावश्यक तैयारी की जाती है उसे शास्त्रकारों ने "भावजितकरण" संज्ञा दी है। इसके किये बिना केवलि समुद्घात का होना सम्भव नहीं है, पत: पहले अन्तर्मुहूर्त तक केवली प्रायजितकरण करते हैं । क. पा० सु. पृ०६.० सत्व के घटते २ जो प्रावली मात्र स्थिति प्रदशिष्ट रह जाती है उसका नाम उमिष्टावलि १ वैसे तो वृष्टिकरण काल में भी प्रश्वकर्णकरण पाया जाता है । क्योंकि वहां भी प्रश्वकर्ण के प्राकार संज्वलनों का अनुभागसत्त्व मा अनुभागकाण्डक होता है । क्ष० सा० ४९१ परन्तु "अपूर्वस्पर्धक सहित अश्वकर्णकरण का काल" यहाँ प्रकृत है।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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