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[ गाथा २५१
पुव्वराहस्स तिजोगो संतो खीयो य पढमसुक्कं तु । विदियं सुक्कं खीयो इगिजोगो कायदे झाणी ॥ २५६ ॥ ६५० ॥
क्षपणासाय
अर्थ – पूर्व अर्थात् ग्यारहअङ्ग व १४ पूर्वके ज्ञाताके तथा तीनोंयोगवालोंके उपशान्तमोह और क्षोणमोह गुणस्थान में प्रथम शुक्लध्यान होता है एवं क्षोणमोहगुणस्थानवतीं और एकयोगवाले द्वितीयशुक्लध्यानको ध्याते हैं ।
विशेषार्थ -- -- इस गाथा में प्रथम शुरू स्वामी उपशान्वमोहनामक ११ वें गुणस्थानवाले तथा क्षोणमोहनामक १२ वें गुणस्थानवालोंको बताया है । अर्थात् ११ गुणस्थान से पूर्व के गुणस्थानों में शुक्लध्यान नहीं होता, किन्तु धर्मध्यान होता है ऐसा इस गाथा के पूर्वार्धका अभिप्राय जानना चाहिए। धर्मध्यान सकषायी जोवोंके और शुक्लध्यान कषायरहित जीवोंके होता है । कहा भी है
"धम्माणमेयवत्थुम्हि थोय कालाबद्वाइ । फुदो ? सकषाय परिणामस्स भहरंत दिप वस्सेव चिरकालमवद्वाणाभावादो । धम्मज्भाणं सक्साए चेव होदि त्ति कथं णच्वदे ? असं जबसम्मादिद्वि-संजदासं जद परत्त संजय- अपमत्त संजय अपुच्च संजदश्रणियट्टिसंजद- सुहुमसांपराइयलयगोबसाएसु धम्मम्भास्स पत्ती होवि त्ति जिणोवएसादो । सुक्ककाणस्स पुण एक्कम्हि वत्थुम्हि धम्मज्झाणावद्वाणकालादो संखेज्जगुणकालमबट्टाणं होदि, बीयरायपरिणामस्स मणिसिहाए व बहुएण वि कालेज संचाला - भावादी' ।" अर्थात् धर्मध्यान एकवस्तु में स्लोककालतक रहता है, क्योंकि कषायसहित परिणामका गर्भग्रहके भीतर स्थित दीपकके समान चिरकालतक अवस्थान नहीं बन सकता । असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, श्रप्रमत्तसयत, क्षपक व उपशामक अपूर्वकरणसंयत अनिवृत्तिकरण संयत सूक्ष्म साम्परायसंयतोके धर्मध्यानको प्रवृत्ति होता है ऐसा जिनेन्द्रदेवका उपदेश है । इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान सकषाय जीवोंके होता है, किन्तु शुक्लध्यानका एकपदार्थ में स्थित रहनेका काल धर्मध्यानके अवस्थानकाल से संख्यातगुणा है, क्योंकि वीतरागपरिणाम मणिको शिखाके समान बहुतकालके द्वारा भी चलायमान नहीं होते ।
१. धवल पु० १३ पृष्ठ ७४-७५ ।