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गाथा २५६ ]
क्षपणासार
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अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, प्रशस्तविहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, सुस्वर, दु:स्वर, अनादेय, अयशस्कीति, निर्माण, नीचगोत्र थे ७२ प्रकृतियां है तथा उदयरूप वेदनीय, मनुष्यावु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यानुपूर्वी,' अस, बादर, पर्याप्त सुभग, आदेय, यशस्कोर्ति, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र ये १३ प्रकृतियां हैं । इसप्रकार इन ७२ व १३ प्रकृतियों का क्रमशः द्विचरमसमय च चरमसमय में क्षय करने के अनंतर समय में जिसप्रकार कालिमारहित शुद्धसोना निष्पन्न होता है उसीप्रकार सर्व कर्ममलरहित कृतकृत्यताको प्राप्त यह आत्मा सिद्ध हो जाता है ।
तिवसिहरेण मही वित्थारे अजोषयथिरे । धवलच्छायारे मोहरे ईसिम्भारे ॥२५८॥६४६ ॥
अर्थ - तीन लोक के शिखर में ४५ लाखयोजन विस्तृत एवं योजन ऊंची, स्थिर, श्वेतवर्णवाली, छत्राकार ईषत्प्राग्भारनामक मनोहरपृथ्वी है ।
शिखर में
विशेषार्थ - सिद्ध होनेपर ऊर्ध्वगमनस्वभावसे यह जीव तीन लोकके ईषत्प्राभारनामक अष्टम पृथ्वीपर एकसमयमात्र में पहुँचकर तनुवातवलय के अन्त में विराजमान होता है | वह सिद्धभूमि मनुष्यपृथ्वीके समान ४५ लाख योजन विस्तृत गोल आकारवाली माठयोजनऊंची, स्थिर, श्वेतछत्र के प्राकारको मध्य में मोटी व सिरोंपर पतली तथा मनोहर है । यद्यपि ईषत्प्रागभारनामक पृथ्वी घनोदधि-वातवलयपर्यन्त हैं, किन्तु यहां उस पृथ्वी के मध्य पाई जानेवाली सिद्धशिलाकी अपेक्षा यह प्ररूपण किया गया है । धर्मास्तिकाय के अभाव से उससे आगे गमन नहीं होता है अतः वहीं चरमशरीर से किंचित्ऊन आकाररूप जीवद्रव्य अनन्तज्ञानानन्दमय विराजते हैं ।
१.
१४ वे गुणस्थान में 'मनुष्यगत्यानुपूर्वी' अनुदयप्रकृति है । (धवल पु० ६ पृष्ठ ४१७, घबल पु० १० पृष्ठ ३२६, भगवति आराधना गाथा २११७-१८ )
२, तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परम भास्वरा । प्राग्भारानाम वसुधा लोकमूहित व्यवस्थितः लोकतुल्यविषकम्भासितच्छुत्र निभाशुभा । उर्ध्वं तस्याः क्षितेः सिद्धा लोकान्ते समवस्थिताः ॥ १८४-८५ (ज. घ. मूल पृष्ठ २२६६ )
३. ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां कस्मान्नास्तीति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः पर। || ( जयधवल मूल पृष्ठ २२६६ श्लोक १८८)