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गाथा २५८ ]
क्षपणासार
[ २१६ यद्यपि धर्मध्यान अवस्था में कर्मबन्ध भी होता है, क्योंकि वह सकषायी जीवों के होता है; तथापि वह संवर निर्जरा व कर्मरूप शत्रुको सेनाके राजा मोहनीयकर्मका विनाश करने वाला है।
___ "किं फल मेदं धम्मज्भाणं ? अक्ख वएसु वि उलामर सुहफलं गुण सेडोए कम्मणिज्जराफलं । खवएस पूण असंखेज्जगुरगसेडीए कम्मपदेसणिज्जराणफलं सुहकम्माणमुक्कस्साणुभागविहाणफलं च'। मोहणीयविणासो पुण धम्मज्माणफलं, सुहमसापराइयचरमसमए तस्स विणासुवलंभादो । अर्थात्--
शङ्का--धर्मध्यानका क्या फल है ?
समाधान-अक्षपक जीवोंको देवपर्यायसंबंधी विपुलसुख मिलना और कर्मोकी गुणश्रणिनिजेरा होना धर्मध्यानका फल है । क्षपक जीवोंके तो असंख्यातगुणश्रेणिरूपसे कर्मनिर्जरा होना और शुभकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभाग होना धर्मध्यानका फल है। मोहनीयकर्मका विनाश करना भी धर्मध्यानका फल है ।
धर्मध्यानपूर्वक ही शुक्लध्यान होता है, क्योंकि धर्मध्यानके द्वारा मोहनीयकर्मका उपशम या क्षय हो जाने पर ही वीतरागता होती है। अब शुक्लध्यानका कथन करते हैं---
शङ्का-शुक्लध्यानके शुक्लपना किस कारणसे प्राप्त है ?
समाधान-कषायमलका अभाव होनेसे शुक्लध्यानके शुक्लपना प्राप्त है । वह शुक्लध्यान चारप्रकारका है-पृथक्त्ववितर्कबोचार, एकत्ववितर्कअवीचार, सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति और समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति । इनमें से प्रथमशुक्लध्यानका लक्षण इसप्रकार है--पृथक्त्वका अर्थ भेद है, वितर्क द्वादशांमश्रुतको कहते हैं और वीचारका अर्थ मन-वचन-काययोग तथा अर्थ (पदार्थ) और व्यंजनको संक्रान्ति है । पृथक्त्व अर्थात् भेदरूपसे वितर्क (श्रुत) का वीचार (संक्रांति) जिसध्यान में होता है वह पृथक्त्ववितकवीचारनामक ध्यान है।
१. धवल पु० १३ पृष्ठ ७७ । २. धवल पु० १३ पृष्ठ ११ ।