SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माया ३६ ] [ ३७ अर्थः- तत्पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर आठ (अप्रत्याख्यानाचरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४) कषायों का पृथक्त्वस्थितिखण्डसम्बन्धी कालके द्वारा संक्रमण होता है तथा उच्छिष्टावलीमात्र स्थितिसत्त्व शेष रह जाता है । अपणासा विशेषार्थः असंख्यात समयबद्धमात्र उदीरणा होनेसे लगाकर संख्यात हजार स्थितिकाण्डक व्यतीत होनेपर अप्रत्याख्यात व प्रत्याख्यान कोध - मान-माया व लोभरूप बाठ कषायों का संक्रमण होता है। यहां पर प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा क्षपणाका प्रारम्भ होना संक्रमण जानना । ये उपर्युक्त आठकषाय अप्रशस्त थे अतः प्रथम हो इनकी क्षपणा सम्भव है। इन कषायोंके द्रव्यमें से कुछ द्रव्य तो क्षपणाके प्रारम्भके प्रथम समय में, कुछ द्रव्य द्वितीय समय में इसप्रकार समय-समय त्रति एक-एक फालिका संक्रमण होते हुए अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं उतनी फालियोंके द्वारा प्रथमकाण्डका संक्रमण होता है । इसप्रकार ये कर्म परमुखसे नष्ट होते हैं, सो अन्यप्रकृतिरूप होकर जिसका नाश होता है वही परमुखनाश कहलाता है । मोनोयकर्मरूप राजा की सेनाकी नायकरूप इन आठ कषायोंका अन्तिमकाण्डकसम्बन्धी अन्तिमफालिके नास होनेसे अवशिष्ट स्थितिसत्त्व कालको अपेक्षा आवलीमात्र रहता है और निषेकों को अपेक्षा एकसमयक्रम आवलिप्रमाण रहता है, क्योंकि अन्तिमकाण्डकघात के समय प्रथमनिषेकका संक्रमण स्वमुख उदयसहित किसी सज्ज्वलनकषाय में होता है तथा उदयावली को प्राप्त निषेकका काण्डकघात नहीं होनेसे एकसमयकम आवलिमात्र निषेक अन्तिमफालिके साथ नष्ट नहीं होता है । प्रतिसमय स्तुविकसंक्रमणद्वारा प्रत्येकनिषेक ज्वलनरूप परिणमनकरके विनाशको प्राप्त होता है । 'ठिदिबंध पुत्तगदे सोलसपयडी होदि संकमगो । वलिपविट्ठ ॥३६॥४३०|| ठिदिखंडपुधतेय तट्ठिदिसंतं तु अर्थ :--- तत्पश्चात् पृथक्त्वस्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर सोलह (स्त्यानद्धित्रिक, नरकद्विक, तिर्यञ्चगतिद्विक, एकेन्द्रियादि चारजाति, बातप, उद्योत, स्थावर, १. क० पा० सुत्त पृ० ७५ सूत्र १६७-६८ । जयधवल मूल पू० १६६३-६४ । घवल पु० ६ पृष्ठ ३५६ । एत्थ रिणयतिरिक्खाईपाओग्गणामाओ त्ति वृत्तं निरयगइरिग इपाओग्गापुवीतिरिक्खगइतिरिक्खमई पाओग्गाणुपुवीएइन्दियवी इंदियतीइदियच उरिदियजादि आदावुज्जीवथावरसुहुमसाहारणरणामाणं तेरसहं पपडीणं गहूणं कायव्वं (जयधवल मूल पृष्ठ १६६४ )
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy