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गाथा १८१]
क्षपणासार
[ १५५ __ अर्थ-द्वितीयादि समयों में नवोन अपूर्वसूक्ष्मकृष्टिको पूर्वसमयमें की गई सूक्ष्मकृष्टिके नीचे और उनके बीच-बीच में करता है। इनमें अधस्तनकृष्टियोंका प्रमाण स्तोक है और उनसे असंख्यातगुणा अन्तरकृष्टियोंका प्रमाण है।
विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकारक द्वितीयसमयमें असंख्यातगुणीहीन अपूर्वसूक्ष्मकृष्टियोंको दोस्थानों में अर्थात् प्रथम समय में की गई कृष्टियों के नीचे और अन्त - राल में करता है । जो कृष्टियां नीचे करता है वे अधस्तन और जिन कृष्टियोंको बीचबीचमें करता है वै अन्तर कृष्टियां कहलाती हैं। कृष्टियोंके नीचे की जानेवाली (अघस्तन) कृष्टियां अल्प हैं तथा अन्तराल में की जानेवाली (अन्तर) कृष्टियां उनसे असंख्यातगुणी होती है।
'दश्वगपढमे सेसे देदि अपुटवेसणंतभागणं । पुवापुवपवेसे असंखभागणहियं च ॥१८१॥५७२॥
अर्थ--द्वितीयादि समयोंमें प्रथमसमययत् द्रव्य देता है, किन्तु इतनी विशेषता है सूक्ष्मकृष्टि सम्बन्धी द्रव्यको अघस्तन अपूर्वकृष्टियोंमें अनन्ताभागरूप हीन क्रमसे तथा पूर्व-अपूर्वकृष्टियोंके प्रवेशमें क्रमशः असंख्यातवेंभागहीन व असंख्यातवेंभागप्रमाण अधिक अर्थात् पूर्वकृष्टियोंके प्रवेशमें असंख्यातवेंभागहीनरूपसे द्रव्य दिया जाता तथा मपूर्वकृष्टियोंके प्रवेश में असंख्यातQभागप्रमाण अधिकद्रव्य दिया जाता है ।
विशेषार्थ-द्वितीयसमयमें जो जघन्यसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि है, उसमें बहुत प्रदेशाग्न दिया जाता है, द्वितीयकृष्टि में अनन्तभागसे होन दिया जाता है । इस क्रमसे जाकर प्रयमसमयमें जो जघन्यसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि है उसमें असंख्यातवेंभागसे होन प्रदेशाग्र दिया जाता है और इसके आगे निर्वयंमान अपूर्वकृष्टि जबतक प्राप्त नहीं होती तबतक अनन्तवें भागसे होन प्रदेशाग्न दिया जाता है तथा अपूर्वनिवर्त्तमानकृष्टि में असंख्यातवें भागअधिक प्रदेशाग्र दिया जाता है। इससे आगे उत्तरोत्तर प्रतिपद्यमान प्रदेशाग्रका अनन्तवांभागरूप होन प्रदेशाग्र दिया जाता है। हितोयसमयमें दिये जाने
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१६१ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६५-६६ सूत्र १२६१ से १२६६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६६ ।