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________________ प्रस्तावना तीर्थकर बर्धमान स्वामि की दिव्यध्वनि से नि:सृत, गौतम गण घर द्वारा सूत्र निबद्ध 'श्रुत' थत केवली परम्परा में अन्तिम श्रु त केवली भद्रबाह तक अक्षण्ण रूप से प्राप्त होता रहा । इससे पूर्व भी २३ तीर्थंकरों, एवं विदेह क्षेत्रस्थ सीमन्धरादि तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि में भी वही प्ररूपण हुअा जो वर्धमान भगवान की वाणी में हुमाया। इतना ही नहीं अनन्तानन्त भूतपूर्व तीर्थकर्ता तीर्थंकरों की वाणी में भी उसी प्रकार प्ररूपण हमा है। कहने का तात्पर्य यह है कि-चारों घातिया कर्मों का क्षय हो जाने पर भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्र के सभी तीर्थकरों को केवल ज्ञान होता है। केवलज्ञान होने पर समवसरण की रचना होकर यथाकाल दिव्यध्वनि प्रकट होती है। सभी केवल शानियों का केवलज्ञान सर्वोत्कृष्ट अविभागी-प्रतिच्छेद वाला होने से एकरूप है। दिव्य ध्वनि केवल ज्ञान का कार्य है।' प्रतः सभी तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि एकरूप होती है, इसोलिये प्रागम अपौरुषेय तथा प्रनादि है । तीर्थंकर भगवान मागम के कर्ता नहीं हैं, व्याख्याता हैं।' प्रवाह रूप से अनादि होने के कारण दिव्यध्वनि न्यूनता और प्रधिकता से रहित होती है । इस प्रकार अनादि प्रवाह रूप से चला माया श्रत भद्रबाहु १ त केवली तक द्वादशांग रूप में प्राप्त था उसके पश्चात् ह्रासोन्मुख वह न त ज्ञान परम्परा से प्रांशिक रूप में श्री गुणधर भट्टारक एवं श्री घरसेनाचार्य को प्राप्त था। वही प्रांशिक ज्ञान घरसेनाचार्य से युष्पदन्त-भूतबली प्राचार्यद्वय को प्राप्त हुमा और उन्होंने उसे सूत्र रूप में निबद्ध कर दिया जिसे षट्खण्डागम के रूप में प्राज भी जाना जाता है। तथा गुणधराचार्य को जो प्रांशिक ज्ञान प्राप्त था उसे उन्होंने २३३ गाथानों में कषायपाहुड़ रूप से निबद्ध किया है। यद्यपि गुणधराचार्य ने कषायपाहुड़ के प्रारम्भ में पन्द्रह अधिकारों को १८० गाथामों में निबद्ध करने की प्रतिज्ञा की है, किन्तु इसमें २३३ गाथाएं हैं। इसके अतिरिक्त चूलिका में दो गाथाएं और हैं। दूसरे अधिकार में १८० गाथानों की प्रतिज्ञा के अनुसार शेष ५३ गाथामों को कितने ही व्याख्यानाचार्य नागहस्ति आचार्य कृत मानते हैं, किन्तु कषायपाहुड़ के इन गाथा सूत्रों पर वीरसेन स्वामि ने अपनी ६०००० श्लोक प्रमाण टीका की है । वे इन सभी २३३ गाथाओं के रचयिता गुणधराचार्य को ही स्वीकृत करते हैं । २३३ गाथाएं सूत्र गाथाएं हैं । ये २३३ गाथा प्राचार्य परम्परा से माती हुई प्रायमंच और नागहस्ती भाचार्य को प्राप्त हुई । प्राचार्य युगल के पादमूल उन्हीं २३३ गाथाओं के अर्थ को भली-भांति श्रवण करके प्रवचन १. तत्र मनोभावे तरकार्यस्य वयसोऽपि न सत्त्वमिति चेन्न, तस्य जानकार्यत्वात्। प. पु.१ पृ. २५८ । सत्येषमागमस्यायौदषयत्वं प्रसजतीति चेस् न, सायबासकभावन पर्ण-पम-पंक्तिभिश्च प्रवाहरूपेणमा पौरुषेमत्माभ्युपगमात् (प. पु. १५ पृ. २८६)। अनिद्वारेणैकस्य प्राहरूपैणा पौरुषेयरूपागमस्यासत्यत्व विरोधात् । प. पु. १ पृ. १९५ । प्रपौवषयत्वेनोऽमाविः सिद्धान्त: (ध. पु. १ पृ.७६) प्रवाहरूपेणापौरुषेयत्वतातीर्थकुवादयोऽस्य व्याख्यातार एव न कत्तरि इति (प.पु. १ पृ. ३४९) ४. होणाहिपभाविरहिय (ज, ध. पु. १ पृ. ६५; प. पु.१ ५. ६१)
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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