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________________ - लक्षणावलि : लब्धिसार ग्रन्थ में जहां परिभाषा माया यह पृष्ठ प्रकरणोपशामना २४६ ___ करणोपशामना से भिन्न लक्षणवाली प्रकरणोपशामना होती है। अर्थात् प्रशस्त समता परिक्षा के बिना ही प्राप्त काल वाले कर्म प्रदेशों का उदयरूप परिणाम के बिना अवस्थित करने को प्रकरणोपशामना कहते हैं । इसी का दूसरा नाम अनुदोर्णोपशामना है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का आश्रय लेकर कर्मों के होने वाले विपाक-परिणाम को उदय कहते हैं। इस प्रकार के उदय से परिणत कर्म को "उदीर्ण" कहते हैं। इस उदीरणं दशा से भिन्न अर्थात् उदयावस्था को नहीं प्राप्त हुए कर्म को अनुदीर्ण कहते हैं । इस प्रकार के अनुदोर्ण कर्म की उपशामना को अनुदीपोपपामना कहते हैं। इस अनुदोगोपशामना में करण परिणामों की अपेक्षा नहीं होती है, इसलिये इसे प्रकरणोपशामना भी कहते हैं । इस प्रकरणोपशामना का विस्तृत वर्णन कर्मप्रवाद नामक पाठवें पूर्व में किया गया है। aw अगुरुलघुचतुष्क मनस्थिति भतिस्थापना क. पा.सु०७० अर्थात् प्रगुरुलघु, उपघात, परघात भौर उच्छ वास । सत्त्वस्थ कर्म को अन्तिम स्थिति का द्रव्य प्रगस्थिति कहलाता है । कर्म परमाणुनों उत्कर्षण-अपकर्षण होते समय इनका अपने से ऊपरकी या नीचेकी जितनी स्थिति निक्षेप नहीं होता वह प्रतिस्थापनारूप स्थिति कहलाती है । अर्थात् कर्म परमाणुओंका उत्कर्षण होते समय तो उनका अपने से ऊपर की जितनी स्थिति में निक्षेप नहीं होता वह प्रतिस्थापना रूप स्थिति है। ज. प. ७/२५० इसी तरह जिन स्थितियों में अपकर्षित द्रव्य दिया जाता है उनकी निक्षेप संज्ञा है तथा निक्षेपस्प स्थितियों के ऊपर तथा जिस स्थिति के द्रव्य का अपकर्षण होता है उससे नीचे, जिन मध्य की स्थितियों में प्रपकर्षित द्रव्य नहीं दिया जाता उनकी प्रतिस्थापना संज्ञा है।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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