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________________ - शब्द पृष्ठ पृष्ठ प्रघाप्रवृत्तकरण २१ परिभाषा उत्कर्पण में-प्रयाघात दशा में जघन्य प्रतिस्थापना एक प्राचली प्रमाण और प्रतिस्थापना उत्कृष्ट पाबाधा प्रमाण होती है। किन्तु व्याघात दशा में जघन्य प्रतिस्थापना प्रावली के मसंरूपातवें भाग प्रमाण मोर उत्कृष्ट प्रतिस्थापना एक समय कम एक प्रापली प्रमाण होती है। ज० ध०७/२५० अपकर्षण में -एक समय कम पावली; उसके दो त्रिभाग प्रमाण जघन्य शतिस्थापना होती है तथा उत्कृष्ट प्रतिस्थापना एक प्रावली प्रमाण होती है। यह अव्याघात विषयक कथन है । ल० सा० गा० ५६-५८ व्याघात को प्रापेक्षा प्रतिस्थापनाउस्कृष्ट समयाधिक अन्तः कोटाकोटिसागर सागर से हीन उत्कृष्ट कर्मस्थिति प्रमाण होती है। ल. सा० गा० ५६-६० ज०५०८/२५० प्रथम करण में विद्यमान जीव के करणो [परिणामों] में, उपरितन समय के परिणाम पूर्व समय के परिणामों के समान प्रवृत्त होते हैं वह अधःप्रवृत्तकरण है। इस करण में उपरिम समव के परिणाम नीचे के समयों में भी पाये जाते हैं, क्योंकि उपरितनसमयवर्ती परिणाम मधः अर्थात् अघस्तनसमय के परिणामों में समानता को प्राप्त होते हैं, अत: "प्रधः प्रवृत्त' यह संज्ञा सार्थक है । घवल ६/२१७ जिसका कहीं पर भी प्रवस्थान--ठहरना म हो उसे अनवस्था कहते हैं । यह एक दोष है। ___अष्टसहस्री पृ० ४४४ प्रा० ज्ञानमतीजी] कहा भी है-मूलक्षतिकरीमाहरनवस्यां हि दूषणम् । वस्त्वनन्त्येऽप्यशक्तो च नानवस्था विचार्यते ॥१०॥ अर्थात् जो मूल तत्त्व का ही नाश करती है वह पनवस्या कहलाती है। किन्तु जहां वस्तु के अनन्तपने के कारण या बुद्धि की असमर्थता के कारण जानना न हो सके वहां अनवस्था नहीं मानी जाती है । मतलब जहां पर सिद्ध करने योग्य वस्तु या धर्म को सिद्ध नहीं कर सके और प्रागे-मागे अपेक्षा तथा प्रश्न या आकांक्षा बढ़ती ही जाय, कहीं पर ठहरना नहीं होवे, यह अनवस्था नामक दोष कहा जाता है । प्र० का मार्तण्ड पृ. ६४८-४६ [अनु० प्रा० जिनमतीजो] एवं षड्. ६० स० ५७/३७१/३६२, प्र. र. माला पृ० १७१
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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