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________________ २७६ ] क्षपणासारा '' [गाथा ३३६ बन्धसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा अधिक करता है, उस स्थानसे कुछ पूर्व गिरनेवाला इसप्रकारका स्थितिबन्ध करता है। पुनः इस अल्पबहुत्व विधिसे संख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरण के द्वारा अन्तर्मुहूर्तकाल अतिक्रान्त करके नीचे उतरनेवालेके अन्यप्रकारका स्थितिबन्ध होता है। - इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है। एक साथ नाम-गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक हो जाता है, इससे मोहनीयको स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अंतरायकर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होते हुए विशेष अधिक होता है । ... शंका-'मोहनीयकर्मके स्थितिबन्धसे नाम-गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध एकसाथ असंख्यातगुरणपनाके परित्यागके साथ विशेष हीन भावसे नीचे हो गया। यहां ऐसा क्यों ? - समाधान-परिणाम विशेषके आश्रयसे विशेषहीन होता है । ऐसा पूर्व में बहुतबार कहा जा चुका है। इस क्रमसे बहुतसे स्थितिबन्धोत्सरण-सहस्र बीतनेपर एक साथ नाम-गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक, इससे चारकर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय ) का स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक होता है, इससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है। परिणाम विशेष के कारण मोहनीयके स्थितिबन्धसे चारकर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष हीन हो जाता है ।' यहांपर क्रमकरण नष्ट हो जाता है। .. .. 1. “कमकरणविणहादो उवष्टिविदा विसेसहियाभो । सञ्चासिं सगणद्धे हेट्ठा सव्वासु महियकर्म ।।३३६॥ अर्थः-क्रमकरण नेष्ट होने के पश्चात् ('पूर्वोक्त अल्पबहुत्वके अनुसार कर्मों का परस्पर विशेष अधिक क्रमसेजो स्थितिबन्ध होते हैं उनमें विशेष अधिकका प्रमाण अपनी-अपनी उत्कृष्टस्थितिके अनुपातसे होता है । उपशमश्रेणिसे गिरनेवाले के १. जयधबल मूल पृ. १६०८-१६०६ सूत्र ४६४-५१२ । २. एत्तो पहुडि सब्बत्थेव अप्पप्पणो उक्कस्स्स टिदिबध पडिभागेण विसेसाहियत्तमुवगंतव्वं ( ज.ध.
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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