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क्षपणासारचूलिका
[ गाथा १०-११
गाथा हमें जिस अनुभाग- अल्पबहुत्वका कथन पूर्वानुपूर्वी क्रमसे किया है चूर्णि - सूत्रकारने उसको पश्चातानुपूर्वी क्रमसे कहा है । चूर्णिसूत्रों में कथन इसप्रकार हैविवक्षितसमय के अनन्तरकाल में होनेवाला अनुभागबन्ध अल्प है । इस अनुभागबन्धसे उसीसमय होनेवाला उदय अनन्तगुणा है, इसका कारण गाथा नं० ७ में कहा गया है । इसके अनन्तर समयवर्ती अनुभागोदय से विवक्षित समय में अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है, क्योंकि प्रतिसमय अनन्तगुणो बढ़नेवाली विशुद्धि के माहात्म्यसे विवक्षित समयकी विशुद्धि से अनन्तर समयकी विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। इसलिए पूर्व-पूर्व समयके उदयसे उत्तरोत्तर समयका बन्ध भी अनन्तगुणा हीन होता है अथवा उत्तरोतर समयके उदय से पूर्व- पूर्व समयका बन्ध अनन्तगुणा होता है यह सब विशुद्धिका माहात्म्य है' |
मोहनीय कर्मके अतिरिक्त अतिवृत्तिकरग्गुणस्थानके अन्त समय में शेष कर्मो का स्थितिबन्ध---
चरि बादरागे णामा गोदाणि वेदणीयं च । वसंत बंधदि दिवसरतोय जं सेसे ॥१०॥
अर्थ — बादरसाम्परायके चरमसमय में नाम गोत्र वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तः वर्षप्रमाण और शेष तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध अन्त:दिवस प्रमाण होता है ।
विशेषार्थ - चरमसमयवर्ती बादरसाम्परायके नाम, गोत्र व वेदनीयकर्मोंका स्थितिबन्ध कुछकम एक वर्ष प्रमाण होता है और तीन घातिया कर्मो का पृथक्त्वमुहूर्तप्रमाण स्थितिबन्ध अन्त:वर्ष प्रमाण और तीन घातियाकमका पृथक्त्वमुहूर्तं प्रमाण स्थितिबन्ध होता है, किन्तु मोहनीयकर्मका अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है ।
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'जं चात्रि संकुहंतो खरेदि किहिं प्रबंध तिस्से । सुमम्हि संपराए प्रबंधगो बंध गियराणं ॥ ११ ॥ ।
क० पा० सुत पृष्ट ७७० ।
क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७४ ० २०६ व पृष्ठ ९९६ गा० १०, ज. घ. मूल पृष्ठ २२२१ व २२७४ । जयधवल मूल पृष्ठ २२२२
क० पा० सुत्त पृष्ठ ८८१ ० २१७६ पृ ६६६ गा० ११; ज. ध. मूल पृ० २२३५ व २२७४ ॥