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गाथा १२॥
क्षपणासारचूलिका अर्थ-जिस कृष्टिको भी संक्रमण करता हुआ क्षय करता है. उसका अबन्धक होता है । सूक्ष्मसाम्परायमें भी अबन्धक होता है, किन्तु इतरकृष्टियोंके वेदन व क्षपणाकालमें उनका बन्धक होता है।
विशेषार्थ--दो समयकम दो प्रावलिपूर्व नवक बन्धकृष्टियों का संक्रमण करके क्षय करनेवाला उस अवस्थामें उन कृष्टियोंका अबन्धक होता है । सूक्षमसाम्पराय नामक १०वें गुणस्थानमें सूक्ष्मकृष्टियोंका वेदन करते हुए भी उनका अबन्धक होता है. क्योंकि वहांपर सक्तिका अभाव है: शादरसाम्पराग गुणस्थानमें क्षय होनेवाली कृष्टियोंके वेदककालमें कृष्टियोंका बाधक होता है। अर्थात् जिस जिस कृष्टिको क्षय करता नियमसे उसका बन्धक होता है, किन्तु दो समयकम दो आवलिबद्धः कृष्टियोफे क्षपणाकालमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके क्षपणाकालमें उनका बन्ध नहीं करता । इन ग्यारह गाथाओं द्वारा सूक्ष्मसाम्परायपर्यन्त चारित्रमोहकी क्षपणाविधि चलि कारूपसे कही गई । कुछ गाथा पूर्व में कही जा चुकी हैं, किन्तु पुन रुक्त दोष नहीं आता ।
'जाव ण छदुमस्थादो तिराहं घादीण वेदगो होइ ।
अहऽयंतरेण खइया सव्वण्हु सव्वदरिसी य ॥१२।।
अर्थ--जबतक क्षीणकषायवीतरागसंयतछमस्थ अवस्थासे नहीं निकलता तबतक बह तीन घातियाकर्मों का वेदक होता है । इसके पश्चात् अनन्सर समयमें तीनघानियाकर्मोका क्षय करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है ।
विशेषार्थ-जबतक छास्थ पर्यायको निष्क्रान्त नहीं करता तबतक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका नियमसे वेदन करता है, अन्यथा छद्मस्थभाव उत्पन्न नहीं होंगे । अनन्तर समय में द्वितीय शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा समस्त घातिया कर्मरूपी गहन वनको दग्ध करके छमस्थ पर्याय से निष्क्रान्त होकर क्षायिकलब्धिको प्राप्त कर [क्षायिकज्ञान दर्शन-सम्यक्त्व चारित्र दान लाभ-भोग उपभोग और वीर्य इन क्षायिक भावोंको प्राप्तकर] सर्वज्ञ ओर सर्वदर्शी होते हुए विहार करते हैं । इन १२ गायाओं के समाप्त होनेपर चारित्रमोहक्षपणा चूलिका सम्पूर्ण होती है ।
१. जयधवल मूल पृष्ठ २२३५ । २. जयधवल मूल पृष्ठ २२७४ । ३. जय धवल मूल पृष्ठ २२७३ ।