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क्षपणसारचूलिका
[ गाथा २६१-२६२
नोट -- उपर्युक्त १२ गाथाओं का ग्रन्थान्तर ( जयघवल मूल) से क्षपणाधिकारकी चूलिकाका कथन हिन्दी टीकाकारने उद्धृत किया है। इसके अनन्तर आचार्य चेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा क्षपणासारका उपसंहार करते हुए अन्तिम मंगल दो गाथाओं द्वारा किया गया है ।
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उसीको कहते हैं-
वीरिंदणं दिवच्छेणप्प सुदेणभयणं दिसिस्सेण । दंसणचरितली सुसूपिदा रोमि चंदे || २६१ ॥ ६५२ ।।
अर्थ - इसप्रकार धीरनन्दि और इन्द्रनन्दिनाचार्य के वत्स तथा अभयनन्दिआचार्य शिष्य मुझ अल्पज्ञ नेमिचन्द्रले दर्शन व चारित्रलब्धिको भले प्रकारसे कहा है ।
अब प्राचार्य गुरुनमस्कार पुरस्सर अन्तिममङ्गल करते हैं-जस्सय पापसात संसारजल हिमुत्तिगणो । वीरिंददिवच्छ ममि तं अभयदिगुरु ॥ २६२ ।। ६५३ ।।
अर्थ — वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि आचार्यका वत्स में नेमिचन्द्र आचार्य जिनके चरणप्रसाद से अनन्तसंसारसमुद्रसे पार हुआ उन अभयनन्दिनामक गुरुको नमस्कार करता है ।