________________
६२ ]
[ गाथा ६९-७०
अर्थ :- अन्तरकृत अर्थात् अन्तरकरण कर चुकनेके पश्चात् प्रथमसमयसे लेकर छह नोकषायों को संज्वलनकोष में स्थापित करता है । पुरुषवेदके अन्तसमय में छह नोकषायोंका सर्वद्रव्य संक्रमणको प्राप्त हो चुकता है और उसीसमय पुरुषवेदका भी पुरातन सर्वद्रव्य संज्वलनक्रोधमें संक्रान्त हो जाता है, किन्तु एकसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयबद्ध द्वितीयस्थिति में है और उदयावलि भी है ।
क्षपणासार
विशेषार्थ :- अन्तरकरण करनेकी क्रिया समाप्त हो जानेके पश्चात् प्रथमसमय में अथवा अन्तरकृत दूसरे समय में ( अन्तरकृत प्रथम समय के पश्चात्का दूसरासमय ) आनुपूर्वीक्रमसे संक्रमणके नियमानुसार छह नोकषायोको संज्वलनक्रोध में संक्रमण करता है अन्यत्र संक्रमण नहीं करता है । सवेदभागके द्विचरमसमय में पुरुषवेद के सत्ता में स्थित पुरानेकमौका और छह नोकषायोंकी अन्तिमफालिका सर्वसंक्रमद्वारा कोषसञ्ज्वलन में संक्रमण करता है । तदनन्तरवेदका अनुभव करनेवाला सवेदभाग के चरमसमय से लेकर एक समयकम दोआबलि कालतक पुरुषवेद और चारसज्वलन इन पांच प्रकृतियोंकी सत्तावाला होता है, क्योंकि पुरुषवेदका एकसमयकम दोआवलिप्रमाण नवक समय प्रबद्ध और उच्छिष्टावली ( उदयावली ) का द्रव्य शेष है ।
दोसमयकम दो बावलियों में जितने समयबद्ध होते हैं उतने समय प्रबद्ध प्रथमसमयवर्ती अपगतवेदी के होते हैं ।
शंका- दोआवलियों में किसकारणसे दोसमयक्रम किये गए हैं ?
समाधान:- अपगत वेदीके प्रथमसमय से लेकर आगेकी एक अवलिप्रमाणकाल अपगतवेदकी प्रथमावलि है और इससे आगेकी दूसरी आवलिप्रमाणकाल उसकी दूसरी आलि है, क्योंकि इनका सम्बन्ध अपगतवेदसे है । उस द्वितीयावलिके त्रिचरमसमयतक अन्तिम समयवर्ती सवेदीके द्वारा बांधा गया कर्म दिखाई देता है, क्योंकि एकसमयकम दोआवलिके अतिरिक्त और अधिककालतक विवक्षित नयकसमयप्रबद्धका अवस्थान नहीं पाया जाता । अपगतवेदीके एकसमयकम एकावलिकालतक नवकसमय प्रबद्ध निर्लेप नहीं होता अर्थात् तदवस्थ रहता है, क्योंकि बन्धावलिकाल में उसका अन्यप्रकृति संक्रमण नहीं होता तथा संक्रमणका प्रारम्भ होनेपर भी एकसमयकम एकआवलिप्रमाण काल में
३. जयघवल पु० २ ० २३४-३५ ।