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________________ लब्धिसार [ गाथा १७०-१७ विशेषार्थ --- मिथ्यादृष्टिजीव पहले ही अन्तर्मुहूर्त काल रहने पर स्वस्थानके योग्य प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा विशुद्धिको प्राप्त हुआ आयुकर्मको छोड़कर सभी कर्मोंके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मको अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर करता है, क्योंकि उस काल में होनेवाले विशुद्धिरूप परिणाम उससे उपरिम स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मके विरुद्ध स्वभाववाले होते हैं और उनके उसप्रकारके हुए बिना संयमासंयम की प्राप्ति नहीं बन सकती । प्रकृत विशुद्ध के निमित्तसे होनेवाला यह एक फल है । दूसरा फल यह है कि साता आदि शुभ कर्मो के अनुभागबन्ध और अनुभाग सत्कर्म को चतुःस्थानीय करता है, क्योंकि उनका अनुभाग शुभपरिणामनिमित्तक होता है; परन्तु पांच ज्ञानावरणादि प्रशुभकर्मों के अनुभागबन्ध और अनुभाग सत्कर्मको नियमसे द्विस्थानीय करता है, क्योंकि विशुद्धिरूप परिणामोंके निमित्तसे उन कर्मकि उससे ऊपरके अनुभाग का घात हो जाता है । १४४ ] अब उपशमसम्यक्त्व के साथ देशसंयमको ग्रहण करनेवाले जीवका कार्य बतलाते हैं- मिलो देवचरितं उस मेहसाणो हु । सम्मत्पत्तिं वा तिकरण चरिमम्हि गेरहृदि हु ॥ १७० ॥ - अनादि या सादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वसहित देशचारित्र ग्रहण करता है । सो वह दर्शनमोहके उपशम में जो विधान कहा है उसी विधान द्वारा तीन करणोंके अन्तिम समय में देशचारित्रको ग्रहण करता है | दर्शनमोहके उपशमकाल में जो प्रकृति- स्थितिबन्धापसरण स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य कहे गये हैं वे सभी कार्य यहां भी करता है कुछ भी विशेषता नहीं है । अथानन्तर वो गाथाओं से मिथ्यादृष्टि जीवके वेवकसम्यक्त्वके साथ देश चारित्र के ग्रहण के समय होनेवाली विशेषता बतलाते हैं मिच्छो देसचरितं वेदगसम्मेण गेराइमाणो हु । दुकरणचरिमे गेरादि गुणलेडी पत्थि तक्करणे ॥ १७१ ॥ सम्मतष्पत्ति वा थोत्रबहूरां व होदि करणाणं । ठिदिखंड सहरसगदे अपुव्वकरणं समप्पदि हु ॥ १७२ ॥ ★ F
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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