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गाथा १७२ ] लब्धिसार
[ १४५ अर्थ--सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्व सहित देशचारित्र को ग्रहण करता है उसके अधःकरण और अपूर्वकरण ये दो ही करण होते हैं, उनमें गुरगश्रेरिण निर्जरा नहीं होती है, अन्य स्थितिखंडादि सभी कार्य होते हैं । वह अपूर्वकरणके अंतिम समयमें वेदकसम्यक्त्व और देशचारित्रको युगपत् ग्रहण करता है, क्योंकि अनिवृत्तिकरण विना ही इनकी प्राप्ति सम्भव है । वहां प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्तिवत् ही करणों का अल्पबहुत्व है, इसलिए यहां अधःकरणकालसे अपूर्वकरणका काल संख्यातवेंभागप्रमाण है तथा अपूर्वकरणके कालमें सख्यातहजार-स्थितिखण्ड होने पर अयुर्वकरणका काल समाप्त होता है ।
विशेषार्थ-इसीप्रकार असंयतबेदकसम्यग्दृष्टि भी दो करणों के अन्तसमय में देशचारित्रको प्राप्त होता है । मिथ्यादृष्टिके कथन से ही सिद्धान्तके अनुसार असंयतसम्यग्दष्टिका भी ग्रहण करना । यहां उपशम सम्यक्त्वका अभाव होने से उस सम्बन्धी गणश्रेरिण नहीं है और देशचारित्रको अभी तक प्राप्त नहीं किया इसकारण उस सम्बन्धी गुणश्रेणि भी नहीं है तथा वेदकसम्भवत्व गुणवेशिका कारण नहीं है इसलिये यहां अपूर्वकरणमें गुणश्रेणिका अभाव कहा है । अनिवृत्तिकरण, कर्मों के सर्व उपशम या निर्मल क्षय होने के समय होता है, क्षयोपशममें नहीं होता अतः यहां अनिवृत्तिकरणका
कथन नहीं किया।
अधः प्रवृत्तकरणका कथन जिसप्रकार दर्शनमोहको उपशामनामें किया गया है उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है। अधःकरणके समाप्त होने पर अपूर्वकरणका प्रारम्भ होता है। दर्शनमोहकी उपशामना प्रकरणमें इसका कथन हो चुका है। यहां इतनी विशेषता है कि देशचारित्रलब्धिकी प्रधानतासे वहांके परिणामोंसे यहां के परिणाम अनन्तगुणे होते हैं। पूर्ववत जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवेंभागप्रमाण और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण प्रथम समयमें होता है । मध्यमें वह अनेकप्रकारका होता है । अशुभकर्मों के अनन्त बहुभागरूप अनुभागकाण्डकघात होता है, किन्तु शुभकर्मोका अनुभागधात नहीं
१. जब यह जीव दर्शनमोहनीय की उपशामना, चारित्रमोहनीय की सर्वोपशामना दर्शनमोह की
क्षपणा, चारित्रमोहकीक्षपणा, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना (ज. प. पु. १३ । पृ. १६७-६८)
करता है तब अनिवृत्तिकरण होता है । (ज. प. पु. १३ पृ. ११४ व ज. प. पु. १३ प. २१४) २. घ. पु ६ , ज.ध. पु. १३ प. १२० ।