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________________ २० ૐ २०६ ] [ गाथा २४४-४७ उससमय में रचे गये अपूर्वस्पर्धकोंकी प्रथमादिवर्गणाओं में एवं उससे ऊपर पूर्वसमय में ये गए की जयमादिवर्गमाओं जीवप्रदेश दिये जाते हैं । सर्व अपूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण जगच्छ्रेणी प्रथमवर्गमूलका असंख्यातवभाग है । पूर्वस्पर्धकोंके असंख्यातवेंभागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक हैं, क्योंकि पूर्वस्पर्धकों में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणहानियां हैं, उनमें से एक गुणहानि स्थानान्तर में जितने स्पर्धक हैं उनसे भी असख्यातगुणेही पूर्वस्पर्धक हैं । शंका- गाथासूत्र के बिना यह कैसे जाना जाता है ? क्षपणासार समाधान- - सूत्र से अविरुद्ध गुरूपदेशके बलसे उसप्रकारकी सिद्धि होने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि व्याख्यान से विशेष अर्थको प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्याय है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अपूर्वस्पर्धक करने का जो काल है उसके चरमसमय में अपूर्वस्पर्धक क्रिया समाप्त हो जाती है । अपूर्वस्पर्धक त्रिया समाप्त हो जानेपर भी सर्व पूर्वस्पर्धक उसीप्रकार स्थित है, क्योंकि अभी तक उनके विनाशका अभाव है। यहां सर्वत्र सयोगकेवलीके चरमसमयतक स्थितिघात, अनुभागघात तथा गुणश्रेणीनिर्जराकी प्ररूपणा पूर्वोक्त क्रमसे जानना चाहिए, क्योंकि उनकी प्रवृत्ति में प्रतिबन्धका अभाव है । इसप्रकार अपूर्वस्पर्धक क्रियासम्बन्धी कथन समाप्त हुआ' | एसा करेदि किहिं मुहरतोति ते अपुण्वारणं । हेट्टा फटयाएं सेडिस्स असंखभागमिदं ॥ २४४ ॥ ६३५ ।। पुव्वा दिवग्गणाणं जीवपदेसा विभागपिंडादो । होति खं भागं किट्टीपदमम्हि ताण दुर्गं ॥ २४५॥६३६ ।। ओक्कहृदि पडिसमयं जीवपदेसे असंखगुणिदकमे । गुणही कमेण य करेदि किहिं तु पडिसमए ॥ २४६ ॥ ६३७|| सेढिपदस्स असंखं भागमपुत्राण फब्रुयाणं व । सव्वा किट्टीश्रो पल्लस्स श्रसंखभागगुणिद्कमा || २४७||६३८ ॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ २२६५ से २२८७ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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