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________________ गाथा २४३ ] क्षपणासार [ २०७ स्पर्धकोंके अथवा जगत्श्रेणोके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सूक्ष्मनिगोदिया जोवके जघन्ययोगस्थानसे असंख्यातगुणेहीन सूक्ष्मकाययोगके अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इसमें भी आदिवर्मणाके असंख्यातवें भागरूप परिणमाकर अपूर्वस्पर्धकोंकी रचना होती है। यहां असंख्यात बेंभागसे पल्यका असंख्यातयां भाग ग्रहण करना चाहिए । प्रथमसमयमै असंख्यातāभागप्रमाण जोवप्रदेशोंका अपकर्षणकरके अपकषित जीवप्रदेशों में से बहुत जीवप्रदेश अपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणामें दिये जाते हैं, क्योंकि सवंजघन्यशक्तिरूपसे परिणमन करते हुए जीवप्रदेशों में बहुत्व होने में विरोधका अभाव है। अपूर्वस्पर्धकको हो द्वितीयवर्गणामें विशेषहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं। इसप्रकार विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्र दिये जानेका यह क्रम अपूर्वस्पर्धकको चरमवर्गणातक जानना चाहिए । विशेषहीनके लिए प्रतिभागका प्रमाण श्रेणिका असंख्यातवांभाग है। पुनः अपूर्वस्पर्धककी चरमवर्गणासे असंख्यातगुणे होन जीवप्रदेश पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामें दिये जाते हैं। यहां हानि गुणकारका प्रमाण पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र होते हुए भी अपकर्षण उत्कषणभागहारसे अधिक है। उससे ऊपर आममसे अविरुद्धरूपसे विशेषहोन-विशेषहीन जोवप्रदेशोंका विन्यासक्रम जानना चाहिए । इसप्रकार प्रथमसमयमें अपूर्वस्पर्धकको प्ररुपणा कही, तयैव द्वितीयसमय से लेकर अन्तम हर्तकालतक अपूर्वस्पर्धकोंको रचना होतो है। प्रथमसमयमें किये गए अपूर्वस्पर्धकोंके नीचे उनसे असंख्यातगुणेहोन अपूर्वस्पर्धक द्वितीयसमय में किये जाते हैं, द्वितीयसमय में रचित अपूर्वस्पर्ध कोंसे असंख्यातगुणेहीन उनके नीचे तृतीयसमयमें अन्य अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं। इसप्रकार नीचे-नीचे अन्तर्मुहूर्त के चरमसमयपर्यन्त असंख्यातगुणहीन-असंख्यातगुणे होनरूपसे अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं, किन्तु प्रथमसमयमें जितने जीवप्रदेशोंका अपकर्षण किया था उनसे असंख्यात गुणे जोवप्रदेश द्वितीयसमयमें अपकर्षित किये जाते हैं । इसप्रकार तृतीयादि समयों में भी असंख्यातगुणे जीवप्रदेशों के अपकर्षणका यह क्रम जानना चाहिए। द्वितीयसमयमें अपकर्षित जोवप्रदेशों के द्वारा रचे गए पूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें बहुत जीवप्रदेश दिये जाते हैं तथा उससे आगे द्वितीयसमयमें हो रचे गये अपूर्वस्वधंकोंको चरमवर्गणातक आदिवर्गणा से विशेषहोन-विशेषहोन जोधप्रदेश दिये जाते हैं। उससे ऊपर प्रथमसमयमें रचित अपूर्वस्पर्धकों में से जघन्यस्पर्धकको आदिवर्गणामें असंख्यातगुणेहीन जीवप्रदेश दिये जाते हैं, इससे कार सर्वत्र विशेषहीन-विशेषहीन जीवप्रदेश दिये जाते हैं । इसीप्रकार तृतीयादि समयों में असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे जीवप्रदेशों का अपकर्षण होकर तथा उस
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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