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क्षपणासार
[ गाथा १-५ बन्धसे व्युच्छिन्न हैं, क्योंकि उनके बन्धकारणोंको उल्लंधकर क्षपक श्रेणिके अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी तत्प्रायोग्य विशुद्धि में वर्तन कर रहा है । नामकर्मको परिवर्तमान सभी अशुभप्रकृतियों की पूर्व में ही बन्धसे व्युच्छित्ति हो जाती है । नरकगति, तिर्यञ्चति, एकेन्द्रियादि चार जाति, पांच अशुभसंस्थान, पांच अशुभसंहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यच. गत्यानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशस्कीति नामकर्मको ये प्रकृतियां यथासम्भव नीचले गुणस्थानों में बन्धसे ज्युच्छिन्न हो जाती हैं | नामकर्मको केवल इतनी ही प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती, किन्तु मनुष्यगतिद्विक, औदारिक द्विक, वज्रवृषभनाराचसंहनन इन शुभ प्रकृतियों को असंयतसम्यग्दृष्टियोंके भी बंधव्युच्छित्ति देखी जाती है । आतप और उद्योत इन दो शुभ प्रकृतियों की बन्धयुच्छित्ति यथाक्रम मिथ्यादृष्टि व सासादनगुणस्थानमें हो जाती है । वहांपर (क्षपकणि में) नामकर्मकी इतनी प्रकृतियों को बन्धव्युच्छित्ति पायी जाती है। गोत्रकर्ममें नीचगोत्र बन्धसे व्युच्छिन्न है, क्योंकि सासादनगुणस्थानसे आगे इसका बन्ध नहीं होता है । अन्त रायकर्मकी एकभी प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न नहीं है । उदयसे व्युच्छिन्न प्रकृतियां निम्नप्रकार हैं- स्त्यानगृद्धितिक पूर्व में ही उदयसे व्युच्छिन्न हो जाती हैं । यहांपर निद्रा और प्रचला उदयसे व्यूच्छिन्न नहीं होती, क्योंकि उनका उदय क्षीणकषाय गुणस्थानके द्वि चरमसमयतक सम्भव है । शेष मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, १२ कषाय, मनुष्यायुफे अतिरिक्त तीन आयु, नरकगति, तियंञ्चगति, देवगति और इनके प्रायोग्य अर्थात् नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी एकद्रिय-विकलेंद्रियजाति, वैक्रियकशरोर, वैक्रियक अंगोपांग, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म-साधारणशरीर, आहारकटिक, बज्रवृषभनाराचसहनन को छोड़कर शेष पांचसंहनन मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अशुभविक (दुर्भग, अनादेय, अयशस्कोति), अपर्याप्त, नीचगोत्र ये प्रकृतियां उदयसे पूर्व में ही व्युच्छिन्न हो जाती है । तीर्थङ्करप्रकृतिको कदाचित उदयव्युच्छित्ति होती है कदाचित् नहीं ।
कहां पर अन्तरकरके किन-किन कर्मोंको कहां संक्रामण करता है ? यह अघःप्रवृत्तकरणसंयत यहाँ अन्तर नहीं करता, किन्तु अपूर्वकरणकालको उलंघकर
१. कर्मप्रकृतियोंका क्षय १४ गुणस्थान तक है अत: क्षपणाका यह प्रकरण १४वें गुणस्थानतक
जानना । इसी अपेक्षा तीर्थङ्करप्रकृतिका स्यात् उदय और स्यात् अनुदय कहा है। २. जयधवल पु० १६४६-४७ ।