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[ गाथा १०८
विशेषार्थ - क्रोध- मान-माया व लोभ इन चारोंकषायों में प्रत्येककषाय की तीन-तीन संग्रहकृष्टि होकर सर्व (४X३) १२ संग्रहकृष्टियां होती हैं तथा इनमें से एकएक संग्रहकृष्टियों में अवान्तर कृष्टियां अभ्रव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तभागप्रमाण अनन्त होती हैं और इनके अन्तर भी अनन्त हैं। एक-एक कृष्टिसम्बन्धी अत्रान्तरकृष्टियों के अन्तर की संज्ञा "कृष्टि अन्तर" है एवं संग्रहकृष्टि के ग्यारह अन्तरालोंमें रची गई कृष्टियोंकी "संग्रहकृष्टिअन्तर" संज्ञा है। इनमें से कृष्टि अन्तरके गुणकारको 'स्वस्थानगुणकार' और संग्रहकृष्टि अन्तरके गुणकारको "परस्थान गुणकार” संज्ञा है ।
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क्षपणासार
लोभकषायकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें अनुभाग स्तोक है, उससे द्वितीयसंग्रहकृष्टि मैं अनन्तगुणा है । इसप्रकार अनन्तगुणा क्रम लीये क्रोधकषायकी तृतीयसंग्रहकूष्टितक जाना चाहिए, यह कथन अनुलोभकी अपेक्षा है । विलोमकी अपेक्षा कोषकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिमें अनुभाग सबसे अधिक है, उससे क्रोधकधायकी द्वितीय संग्रहकूष्टि में अनन्तगुणाहीन है । इसप्रकार क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिसे लेकर बोकी प्रथम संग्रहकूष्टिपर्यन्त अनन्तगुणेहीन क्रमसे अनुभाग होता है । इसका विशेषकयन लागे गाथा १०५ में किया जावेगा ।
उपर्युक्त गाथाके कथनका स्पष्टीकरण करनेके लिए गाथा सूत्र कहते हैं 'लोभादी कोहोति य सट्टांत रमणंत गुणिदकमं ।
ततो वादरसंग किट्टी अंतरमतदिकमं ॥ १०८ ॥ ४६६ ॥
अर्थ — लोभकषायसे क्रोधकषायपर्यन्त स्वस्थान अन्तर अनन्तगुणा क्रम लीये तथा उस स्वस्थान अन्तरसे बादर संग्रह कृष्टिअन्तर अनन्तगुणा क्रमसहित है ।
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१. "एक्के किस्से संगह किट्टीए अणताओ किट्टीओ । तासि अंतराणि वि अणताणि । तेसिमंतरा सण किड्डी अंतराइ णाम । " सबह किट्टाए च संगकिट्टीए च अंतराणि एक्कारस, तेसिस संग्रह किट्टी अंतराइणाम । (क. पा. सुत्त पृष्ठ ७१६ सूत्र ६११) ध० पु० ६ ० ३७६ | जय वल मूल पृ० २०५१ ।
२. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७९६ से ८०१ सूत्र ६१४ से ६४२ तक । धवल पु० ६ पृ० ३७८ ॥
३. "तत्य सत्थाणगुणगारस्स किट्टी अंतरमिदि सण्णा, परवाणगुणगाराणं संग्रह किट्टीणं अंतरणि ति सा ।" अर्थात् एकसंग्रहकृष्टि की अन्तरकृटियों का जो परस्पर गुरणकार है वह स्वस्थानगुणकार है । एकसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृतिका जो गुणकार है वह परस्थान गुणकार है । ( जयधवल मूल पृष्ठ २०५१ )