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गाथ! १९२-१९४]
क्षपणासार
देता है जबतक गुणश्रेणीशीर्ष प्राप्त नहीं होता । यह गुणश्रेणी आयाम सकल अन्तरायामके संख्यातवेंभागप्रमाण है, तथापि सूक्ष्ममाम्परायकालसे विशेष अधिक है। विशेष अधिकका प्रमाण सूक्ष्म साम्परायके संख्यातवेंभाग है । भानावरणादिका गलितावशेष गुणश्रेणीआयाम भी इतना है । अपकर्षित प्रदेशाग्रका असंख्यात बहुभाग जो पृथक रखा था वह गुणश्रेणीसे उप रिमस्थितियों में दिया जाता है।
'गुणसेडि अंतरहिदि विदियट्ठिदि इदि हवंति पञ्चतिया । सुहुमगुगादो अहिया अवट्ठिदुदयादि गुणसंढी ॥१६२॥५८३॥
अर्थ- गुग श्रेणि, अन्तरस्थिति और द्वितीयस्थिति ये तीन पर्व होते हैं । सूक्ष्मसाम्प रायगुणस्थानके काल से उदयादि अवस्थित गुणश्रेणिका आयाम अधिक है।
विशेषार्थ- गुणश्रेणि, अन्तर स्थिति ब द्वितीयस्थिति इन तीनों पोंमें अपकर्षितद्रव्यका विभाजन किया जाता है । जबतक अपकर्षितद्रव्य असंख्यातगुणे क्रमसे दिया जाता है वह गुणश्रेणी कहलाती है, उसके ऊपरवर्ती जिन निषेकोंका पहले प्रभाव किया था उनके प्रमाणरूप अन्तर स्थिति है तथा उससे ऊपरवती अवशिष्ट सस्थितिको द्वितीयस्थिति कहते हैं । सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानका काल अन्त मुहूर्त मात्र है, उससे विशेष. अधिक अर्थात् संख्यातवेंभागअधिक गुणश्रेणी आयाम है। ज्ञानावरणादि कर्मों की भी गलितावशेषगुणश्रेणि निक्षेपका आयाम सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके कालसे अन्तर्मुहूर्तअधिक, क्योंकि इसमें क्षीणकषायगुणस्थानका काल भी गभित है'।
"ओक्कट्टदिइ गिभागं गुणसेढीए असंखबहुभागं ।
अंतरहिद विदियटिदी संस्त्रसलागा हि अवरहिया !!१६३।।५८४॥ गुणिय चउरादिखंडे अंतरसयल विदिम्हि णिक्खिवदि ।
सेसबहुभागमावलिहीणे वितियट्ठिदीएहू ॥१६४॥५८५॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २२०८-२२०६ 1 २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १३०८ । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२० । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६९-७० सूत्र १३०६-१३१२ ।