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लब्धिसार
गाथा २२१-२२२ ]
[ १७७ चारित्रमोहोपशम विधान में पाये जाने वाले आठ कार्योका निर्देश करते हैंतिकरणबंधोसरणं कमकरणं देसघादिकरणं च । अंतरकरणं उवासमकरणं उवसामणे होति ॥२२०॥
प्रथं-चारित्रमोहनीयका उपशम करनेमें आठ करण होते हैं । 'तिकरण' अर्थात् अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ये तीनकरण तथा बंधापसरण, क्रमकरण, देशघातिकरण, अन्तरकरण और उपशमकरण । इसप्रकार पाठकरण होते हैं ।
विशेषार्थ-अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, बंधापसरण, अन्तरकरण और उपशमकरणका स्वरूप प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पत्तिमें कहा जा चुका है । अनिवृत्तिकरणकालमें मोहनीयका स्थितिबन्ध स्तोक, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनका स्थितिबन्ध तुल्य, किन्तु मोहनीयके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा नाम व गोत्रका स्थितिबन्ध तुल्य, परन्तु पूर्वसे असंख्यातगुणा और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है जब इस क्रमसे स्थितिबन्ध होता है इसको पांचवां क्रमकरण कहते हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका बन्ध जब देशधातिरूपसे होने लगता है, सर्वधातिरूपसे बन्ध नहीं होता उसको छठा देशघातिकरण कहते हैं।
आगे अपूर्वकरणमें स्थितिकांडकका कथन करते हैंविदियकरणादिसमये उवसंततिदंसणे जहरणेण । पल्लस्त संखभागं उक्कस्सं सायरपुधत्तं ॥२२१॥ ठिदिखंडयं तु खइये वरावरं पल्लसंखभागो दु। ठिदिबंधोसरणं पुण वरावरं तत्तियं होदि ॥२२२।।
अर्थ-द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिके द्वितीय ( अपूर्व ) करण के प्रादि ( प्रथम ) समय में स्थितिकांडक जघन्यसे पल्यका संख्यातबांभाग आयामबाला और उत्कृष्टसे पृथक्त्वसागरप्रमाणवाला होता है, किन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टिके जवन्य व उत्कृष्ट स्थितिकांडकायाम पल्य के असंख्यातवेंभाग मात्र है । जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबंधापसरण उतना ही अर्थात् पल्यके संख्यातवेंभागप्रमाण है ।
विशेषार्थ--अधःप्रवृत्तकरण नामका गुणस्थान न होने के कारण गाथामें अधःकरणके कार्योंका उल्लेख नहीं किया, किन्तु गाथा २२० के अनुसार अधःप्रवृत्तकरण