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लब्धिसार
[ गाथा २२२
अवश्य होता है और वह सातिशय श्रप्रमत्तगुणस्थान में होता है । सहस्रोंबार प्रमत्तअप्रमत्तगुणस्थान में परावर्तन के पश्चात् उपशमश्रेणिके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ कषायोंको उपशमानेके लिये अधःप्रवृत्त कररण परिणामरूप परिणमता है' ।
कषायोंका उपशम करनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरण होता है उसमें प्रवृत्ति करने वाले जीवके स्थितिघात अनुभागघात आदि सम्भव नहीं है । केवल उसके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालके भीतर प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ सहस्रों स्थितिबन्धापसरण करके अपने प्रथम समय के स्थितिबन्धसे उसके अंतिम समय में संख्यातगुणे हीन स्थितिबन्धको स्थापित करता है । अप्रशस्तकर्मोका प्रतिसमय अनन्त - गुणी हानिको लिये हुए अनुभागबन्यापसररण भी करता है । यद्यपि इन कारणों के लक्षणोंके कथनमें वस्तुतः कोई भेद नहीं है तथापि पूर्वके करणों में विशुद्धि अनन्तगुणीहीन होती है और आगे के करणों में विशुद्धि अनन्तगुणी अधिक होती है । इसप्रकार इन करणों में जो भेद उपलब्ध होता है उसका आश्रयकर पृथक्-पृथक् कार्यों की सिद्धि हो जाती है इसमें कोई विरोध नहीं उपलब्ध होता है ।
कषायों का उपशामक यह जीव क्षीणदर्शनमोहनीय होवे अथवा उपशान्तदर्शन मोहनीय होवे, दोनोंके उपशम श्रेणिपर श्रारोहण करनेमें निषेधका प्रभाव है ।
१
ज. ध. पु. १३ पृ. २१० । ध. पु. ६ पृ. २६२ । क. पा सु. पृ. ६८० ।
२. संयम गुरश्र णी को छोड़कर अधःप्रवृत्त परिणाम निबन्धन गुण रिण भी नहीं हैं ।
( ध. पु. ६ पृ २६२ )
३. ज. ध. पु. १३ पृ. २१३, ध. पु. ६ पृ. २६२, क. पा. सु. पृ. ६८० ।
४. प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति, अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना, द्वितीयोपशम की उत्पत्ति, क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, चारित्रमोहको उपशामना, चारित्रमोहकी क्षपणा इन कार्यों में तीन करण होते हैं, उनमें लक्षण भी सर्वत्र समान है, परन्तु विशेष यह है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति के समय इन तीन करणों में सबसे कम विशुद्धि होती है तथा चारित्रमोहकी क्षपणा के समय इन तीन करों में सबसे अधिक विशुद्धि होती है। मध्यस्थानों में अधिकारी भेद से यथायोग्य विशुद्धि जान लेना चाहिये [ज. व. पु. १३ प. २१४, व. पु. ६. पृ. २६६ ]
५. ज. ध. पु. १३ पृ. २१३-१४, ध. पु. ६ पृ. २८६ ।
६. दोपहपि उनसे डिसमारोह विप्पडिसेहाभावादी [ज. ध. मूल पृ. १९१५]