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________________ 2--- लोयसार [ गाथा ८४ अर्थ-दूसरे करण (अपूर्वकरण) के समान ही तृतीयकरण ( अनिवृत्तिकरण ) होता है, किन्तु प्रतिसमय एक-एक परिणाम होता है। अन्य स्थितिकांडक, अन्य अनुभागकांडक और अन्य स्थितिबन्ध को प्रारम्भ करता है ।। विशेषायं-अनिवृत्तिकरण में भी स्थितिकांडकघात, अनुभागकाण्डकघात, स्थितिबन्धापसरण, गुणश्रेणी ये सभी क्रिया अपूर्वकरणवत् होती हैं, किन्तु इनका प्रमारण अन्य होता है । अपूर्वकरण में प्रत्येक समयके परिणाम असंख्यातलोक प्रमाण. होते हैं, किन्तु अनिवृत्तिकरणमें प्रत्येक समयमें नानाजीवों के एक सा ही परिणाम होता है । नानाजीवों के परिणामों में निवृत्ति अर्थात् परस्पर भेद जिसमें नहीं है वह अनिवृत्तिकरण है। ___ अनिवृत्ति करण में प्रविष्ट होनेके प्रथम समय से ही अपूर्वकरण के अन्तिम स्थितिकांडक से विशेष हीन अन्य स्थितिकांडक को प्रारम्भ करता है । पूर्व के स्थितिबन्ध से पल्योपम के संख्यातवेंभागप्रमाण हीन स्थितिबन्ध भी वहीं पर प्रारम्भ करता है तथा घात करने से शेष रहे अनुभागके अनन्त बहुभागप्रमाग काण्डकको भी वहीं पर ग्रहण करता है, किन्तु गुणश्रेरिणनिक्षेप पूर्वका ही रहता है जो प्रधःस्तनस्थितियों के गलने पर जितना शेष रहे उतना होता है तथा प्रतिसमय असंख्यातगुणे प्रदेशों के विन्यास से विशेषता को लिए हुए होता है। शेष बिधि भी पूर्वोक्त ही जाननी चाहिए । अब अनिवृत्तिकरणकालमें विशेष कार्यका कथन करते हैंसंखेज्जदिमे सेसे दंसणमोहस्स अंतरं कुणई । अणणं ठिदिरसखंड अरणं ठिदिषधणं तस्य ॥८४|| अर्थ--(अनिवृत्तिकरणकाल का) संख्यातांभाग शेष रह जाने पर दर्शनमोहनीयकर्मका अन्तर करता है। वहां पर अन्यस्थितिकाण्डक अन्य अनुभागकाण्डक और अन्य ही स्थितिवन्ध होता है । _ विशेषार्थ- इसप्रकार अनन्तर पूर्व कही गई विधि के अनुसार जो प्रत्येक स्थितिकाण्डक हजारों अनुभाग काण्डकों का अविनाभावी है; ऐसे बहुत हजार स्थिति १. प्र. पु. १ पृ. १८३ एवं क. पा. सुत्त पृ. ६२४ ; ज. ध. पु १२ पृ. २५६ । २. ज. प. पु. १२ पृ. २७१ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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