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________________ झपरगासार २६४ ] [ गाथा ३२०-३२१ छहं पुण वस्साणं संखेजसहस्समेत्ताणि ॥३२०॥ अर्थः-उसी उतरनेवाले मानवेदककालके प्रथमसमय में संज्वलन मान-मायालोभका चारमास और शेष छह कर्मका संख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है ( जो चढ़नेको अपेक्षा दोगुरणा है । ) विशेषार्थः-इसप्रकार सहस्रों स्थितिबन्ध व्यतीत होते हैं तब मानवेदकके अन्तिम समयमें तीन ( लोभ-माया-मान ) संज्वलन कषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम आठ मास होता है और शेष छह कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्रबर्षप्रमारण होता है । इस प्रकार जानवककाल समाप्त हो जाता है।' आगे बोगाथाओंमें संज्वलनकोषमें होनेवाली क्रिया विशेषका विचार करते हैं मोदरगकोहपढमे छक्कम्मसमाणया हु गुणसेढी। बादरकसायणं पुरण एतो गलिदावलेसं तु ॥३२१।। अर्थः- इसके अनन्तर उतरनेवाले अनिवृत्तिकरण जीवके संज्वलनक्रोधके उदय सम्बन्धी प्रथमसमयमें अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलनक्रोध-मान-माया-लाभरूप बारह कषायोंकी ज्ञानावरणादि छह कर्मोंके समान गलितावशेष गुणश्रेणि करता है । विशेषार्थ:----गुणश्रेणी आयामका प्रमाण उतरनेवाले अनिवृत्तिकरणके अपूर्वकरणके कालकी अपेक्षा कुछ अधिक है। यहांसे पहले मोहका गुणश्रेणि आयाम अबस्थित था अब गालताथ शेषरूप प्रारम्भ हुआ है । जिस कषायके उदयसहित उपशमश्रेणि चढ़ा हो तथा उतरते हुए उस कषाय का जिससमय उदय हो उस समयसे लेकर सर्वमोहनीयकी गलितावशेष गुणश्रेणी करता है और अन्तरका पूरना करता है। यहां क्रोधकी विवक्षा है। वह इसप्रकार है-- अन्तरपुरण विधान-बारह प्रकारको कषायोंके द्रव्यको अपकर्षित करके उससमय गुणश्रेणि निक्षेप करता हुआ बोधसंज्वलनके उदयमें स्तोक प्रदेशाग्र देता है। उससे आगे तबतक असंख्यातगुरगा ऋमसे देता है जबतक कि ज्ञानावररणादि कर्मोके पर्व निक्षिप्त गुण गिशीर्षको प्राप्त हो जाय । पुनः तदनन्तर उपरिम अनन्तर समयमें १. ज. प. मूल पृ. १६०० ; ध. पु. ६ पृ. ३२२ एवं क. पा. सुत्त पृ. ७१८ सूत्र ४४१-४२ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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