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क्षपणासार
गाथा ३१६ ]
[२६३ वालोंके ज्ञानावरणादिका प्रत्येक स्थितिबन्ध संख्यातगुणित वृद्धि क्रमसे होता है। चढ़ने वालोंके मोहनीयका प्रत्येक स्थितिबन्ध विशेषहीन क्रमसे होता है और गिरनेवालोंके मोहनीयका प्रत्येक स्थितिबन्ध विशेष अधिक क्रमसे होता है । इसलिए यहां पर मोहनीयके अतिरिक्त अन्यकर्मोका पुनः पुनः संख्यातगुणा स्थितिबन्ध होता है और मोहनीयका पुनः पुनः विशेष अधिक स्थितिबन्ध होता है । इस क्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्धोंके बोतनेपा दा समयार्थी भा देदा होता है, इसमय माया और लोभ इन दो संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्तक्रम चारमाह और ज्ञानावरणादि शेष छह कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है, क्योंकि चढ़नेवालोंके स्थितिबन्ध से उतरनेवालोंका स्थितिबन्ध दो गुणा होता है ।'
अथानन्तर को गाथानोमें मानवेदक जीवके कार्य विशेषको कहते हैंमोदरगमाणपडमे तेत्तियमाणादियाण पयडीणं ।
ओदरगमाणवेदगकालादहियं दु गुणलेढी ।।३१६॥
अर्थः-उतरनेवाला मायावेदककालके अनन्तर मानवेदकके प्रथमसमयमें मानवेदककालसे अधिक मानादि प्रकृतियोंकी गुणश्रेणि करता है।
विशेषार्थः---उसके अनन्तर मानवेदककालके प्रथमसमयमें संज्वलनमानके द्रव्यको अपकषितकरके उदयाबलिके प्रथमसमयसे लेकर तथा दो प्रकारके मान, तीन प्रकारकी माया व तीनप्रकारके लोभ सम्बन्धी द्रव्यको अपकषित करके उदयाबलिसे बाहर प्रथमसमयसे लेकर श्रावलिअधिक मानवेदककालप्रमाण अवस्थित आयामवाली गुणश्रेणि करता है । अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन लोभ, माया व मान इन नौप्रकारको कषायका गुणश्रेरिण निक्षेप होता है और शेष छह कर्मोका गलितावशेष गुणश्रेणि पायाम पूर्ववत्' है । उसीसमय अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलनलोभ-माया-मानरूर नो कषायोंका द्रव्य यहां बध्यमान संज्वलन मान-मायालोभमें आनुपूर्वी रहित जहां तहां संक्रमण करता है ।'
प्रोदरगमाणपढमे चउमासा माणपहदिठिदिबंधो । १. जय धवल मूल पृ० १८६६-१६०० ।। २. जय धवल मूल पृ० १६०० ।