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गया १२७
क्षपणासार
[११७ कृष्टियोंका प्रमाण है इसप्रकार चारपद तो अधिक क्रमसहित हैं तथा उससे असंख्यातगुणे मध्यके उभयस्थानरूप (जिनका बन्ध व उदय दोनों पाये जाते हैं) कृष्टियोंका प्रमाण है'।
क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि में पायी जाने वाली कृष्टियों के प्रमाणको पल्यके असंख्यातवेंभागका भाग देकर उसमें बहुभागमात्र तो मध्यको उभयकृष्टियों का प्रमाण है तथा अवशेष जो एकभाग रहा उसको ["प्रक्षेपयोगोधुतमिश्रपिंडः" इत्यादि सूत्रविधानसे अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा २-३.४ च ७ शलाकाओंको जोड़नेपर (२+३+४+७) १६ लब्ध आया] इससे भाग देकर जो एकभागका प्रमाण आया उसको अपनी-अपनो दो आदि शलाकरों से गुणा करनेपर अघस्तन व उपरितच अनुभयआदि कृष्टियोंका प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार बारहसंग्रहकृष्टियों के वेदककालके प्रथमसमय में अल्प. बहुत्व जानना ।
विदियादिसु च उठाणा पुटिवल्लेहिं असंखगुणहीणा । तत्तो असंखगुणिदा उबरिमणुभया तदो उभया ॥१२७।१५ १८||
अर्थ-द्वितीयादि समयों में चारोंस्थान पूर्वसे असंख्यातगुणे हीन हैं, उससे असंख्यातगुणे ऊपरितन अनुभयस्थान तथा उससे असंख्यातगुणे उभयस्थान हैं ।
विशेषार्थः-पूर्वसमय में बन्धरहित जो अघस्तन केवल उदयकृष्टि थो वे तो उत्तरवर्ती समयमें उभयष्टिरूप होती हैं और पूर्वसमय में जो अनुभयकृष्टि थीं उनमें अन्तकी कुछ ऋष्टि उभयरूप एवं उनसे नोचेको कुछ कृष्टियां उत्तर समय में केवल उदयरूप होती हैं तथा पूर्वसमय में जो उपरितन केवल उदयष्टि थीं वे सभी उत्तरसमयमें अनुभयरूप होती हैं । पूर्वसमयमें जो उभयष्टि थी उनमें अन्तिम कुछ कृष्टियां अनुमयरूप हैं उनसे नीचे की कुछ कृष्टियां उत्तरसमय में केवल उदयरूप होतो हैं। इसप्रकार प्रतिसमय बन्ध और उदयमें अनुभागका घटना होता है, क्योंकि अधस्तन कृष्टियोंमें स्तोक अतुभाग पाया जाता है और उपरितन कृष्टियों में बहुत मनुभाग पाया जाता है। अब अल्पबहुत्वका कथन करते हैं
___ अधस्तन अनुभयकृष्टि स्तोक हैं, उससे उनके ऊपर जो अधस्तनरूप केवल उदयकष्टि हैं वे विशेषअधिक हैं । इससे आगे ऊपर उत्कृष्ट अनुभागसहित पूर्वसमयवर्ती
१. जयघवल मूल पृष्ठ २०६८-२०६६। .