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क्षपणासार
[ गाथा १५ करणके प्रथमसमयमें परिणाम विशेषके कारण असंख्यातसमयप्रबद्ध प्रमाण द्रव्यका अपकर्षणकर उदयावलिसे बाहर अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्प राय और क्षीणकषायके कालोंसे विशेष अधिक काल में गुणश्रेणिरूपसे निक्षेप करता है न बंधनेवाले अप्रशस्त कर्मों का गुणसंक्रमण होता है। अपूर्वकरणके द्वितोयादि समयों में गुणश्रेणि असंख्यात गुणी है, क्योंकि जितने द्रव्यका प्रथम समय में अपकर्षण किया था; द्वितीयादि समयों में असंख्यात गुणे क्रमसे द्रव्य का अपकर्षणकर; शेष-शेष (गलितावशेष) गुणश्रेणि आयाम में निक्षेप करता है, विशुद्धि भो प्रतिसमय अनन्तगुणे क्रमसे बढ़ती है, प्रथमसमयसे अन्य कोई विशेषता नहीं है । यह क्रम प्रथम अनुभागकाण्ड कके समाप्त होने तक है। अनन्तर अगले समयमै शेष अनुभागका अनन्त बहुभाग घातने के लिए अन्य अनुभागकाण्डकको प्रारम्भ करता है इस प्रकार प्रथमस्थितिकाण्डक कालके भीतर अन्य अन्य संख्यात हजार अनुभागकाण्डकघात होते हैं ।
'आउगवज्जाणं ठिदिघादो पढमादु चरिमठिदिसंतो। ठिदिबंधो य अपुवे होदि हु संखेज्जगुणहीणो ॥१५॥४०६।।
अर्थः-आयुकर्म बिना शेष सातकर्मों का स्थितिकाण्ड कायाम, स्थिति सत्त्व और स्थितिबन्ध ये तीनों अपूर्वकरण के प्रथमसमयमें जो पाये जाते हैं उनसे अपूर्वकरणके चरमसमय में संख्यातगुणे कम होते हैं ।
विशेषार्थः-प्रत्येक स्थिति काण्डकघात में स्थितिसत्कर्म हीन होता जाता है । स्थितिकाण्डकायाम (एकस्थितिकाण्डकघात के द्वारा जितनी स्थिति का घात होता है वह स्थितिकाण्डकायाम है) स्थिति सत्त्वका अनुसरण करने वाला है। स्थितिकाण्डकघात द्वारा स्थितिसत्कर्मकी हानि होनेपर स्थितिकाण्डकायाम भी होन होता जाता है । प्रत्येक स्थितिबाधापसरणके द्वारा स्थितिबन्ध घटता जाता है । अपूर्वकरणकालमें हजारों स्थितिकाण्डकघात व स्थितिबन्धापसरण होते हैं अतः अपूर्वकरणके चरमसमय में इन हजारों स्थितिकाण्डकघात द्वारा स्थिति सत्कर्म का घात होकर संस्पातगुणा होन रह जाता है, स्थिति सत्कर्मका अनुसरण करने वाला स्थिति काण्डकायाम भी संख्यातगुणा
१. यह विशेषार्थ जयश्वल मूल पृ० १९४८-१९५२ के आधारसे लिखा गया है । २. जयधवन मूल पृष्ठ १६५० | यह गाथा लब्धिसारको गाथा ७८ के समान है।