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________________ [ २१ गापा १६-१७ ] क्षपणासार हीन हो जाता है । हजारों स्थितिबन्धापसरण द्वारा स्थितिबन्ध विशेष हीन होता हुआ अपूर्वकरणके चरमसमय में स्थितिबन्ध भी संख्यातगुणा हीन होने लगता है'। 'अंतोकोडाकोड़ी अपुवपढमम्हि होदि ठिदिबंध धंधादो पुण सत्तं संखेज गुणं हवे तत्थ ॥१६॥४०७॥ अर्थः--अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोड़ीप्रमाण अर्थात् पृथक्त्वलक्षकोटिसागर प्रमाण है तथा स्थितिसत्त्व भी यद्यपि अन्तःकोटाकोटी प्रमाण है तथापि स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा है । विशेषार्थ:--सायिकसम्यग्दृष्टिके स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व अन्तःकोडाकोड़ीसागर प्रमाण हो जाता है, किन्तु बन्धसे सत्त्व संख्यात गुणा होता है वही प्रवृत्ति यहाँपर भी पाई जाती है। 'एक्केवक द्विदिखंडयणिवडण ठिदिओसरणकाले । संखेज्जसहस्साणि य रिणवडंति रसस्त खंडाणि ॥१७॥४०८।। अर्थ:---एक-एक स्थितिखण्डके पतन होने में अथवा एक स्थितिबन्धापसरणके कालमें संख्यातहजार अनुभागकाण्डकका पतन होता है । विशेषार्थ:-एकस्थितिकाण्डकका काल और एक स्थितिबन्धापसरणकाल समान होते हैं। स्थिति काण्डकको अन्तिमफालिका पतन होनेपर स्थितिकाण्डककाल समाप्त होता है और अन्तिमफालिके पतन होनेपर ही स्थितिघात होता है, द्विचरमफालि के पतन होने तक स्थितिघात नहीं होता इसीप्रकार एक स्थितिबन्धापसरणके प्रथमसमय जितना स्थितिबन्ध प्रारम्भ किया था उतना ही स्थितिबन्ध चरमसमयपर्यन्त होता रहता है । स्थितिबन्धापसरणके चरमसमयके पतन होनेपर, अन्य स्थितिबन्ध स्थिति घटकर होने लगता है। एकस्थितिकाण्डक और एकस्थितिबन्धापसरण इन दोनोंका काल तुल्य है। १. ज. प. मूल पृष्ठ १६५१ । २. धवल पु० ६ पृष्ठ ३४५; क. पा० सुत्त पृष्ठ ७४२ सूत्र ५५ ॥ ज० ध० मूल पृष्ठ १९५१ । ३. यह गाथा ल० सार माथा ७६ के समान है । धवल पु० ६ पृष्ठ २२८ ज. ५० मूल पृष्ठ १९५२ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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