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________________ लब्धिसार गाथा २२६ ] विशेषार्थ- अपूर्वकरणगुणस्थानमें प्रविष्ट हुए संयतजीवके जिस कालमें निद्रा और प्रचलाका बन्धविच्छेद होता है वह काल सबसे थोड़ा है, क्योंकि वह अपूर्वकरणके कालका सांतयां भाग प्रमाण है । उससे परभव सम्बन्धो नामकर्म की प्रकृतियों का सन्ध विच्छेदकाल संख्यातगुणा है, क्योंकि वह अपूर्वकरणकालके छह बटे सात भागप्रमाण है । इससे अपूर्वकरणका सम्पूर्णकाल विशेषाधिक है। इस विशेषाधिकताका प्रमाण अपूर्वकरणके कालके सातवें भागरूप है । यह अपूर्वकरण प्रविष्ट जीव पहलेके समान स्थितिघात व अनुभागघात को करता हुआ अपूर्वकरणके अन्तिम समय के प्राप्त होने तक जाता है । तत्पश्चात् इस कालके चरम समयमें स्थितिकांडक, अनुभागकांडक और स्थितिबन्ध एक साथ समाप्त होते हैं । इसी समय ही हास्य, रति, भय और जुगुप्सा का बन्धविच्छेद होता है; क्योंकि इससे उपरिम विशुद्धियां उनके बन्धके विरुद्ध स्वभाववाली हैं। इसी समय हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह कर्मोका उदय विच्छेद होता है, क्योंकि इससे ऊपर इनको उदयरूप शक्तिका अत्यन्त प्रभाव होनेसे इनका उदयरूपसे प्रवेश रुक जाता है । यहां पर स्थितिसत्कर्मका प्रमाण अपूर्वकरणके प्रथम समय में प्राप्त स्थितिसत्कर्मसे संख्यातगुणा हीन अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर है । इसीप्रकार स्थितिबन्धका प्रमाण भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अंतःकोडाकोड़ीके भीतर लक्षपृथक्त्वप्रमाण है ऐसा कहना चाहिये । इसप्रकार अपूर्वकरणके कालका पालनकर उसके अनन्तर समयमें अनिवृत्तिकरणमें प्रविष्ट होता है । अब आगे अनिवृत्तिकरण के प्रथम समयमें होने वाले कार्योका निर्देश करते हैंअणियहिस्स य पढमे अण्णविदिखंडपहुदिमारवई । उवसामणा गिधत्ती णिकाचणा तत्थ बोच्छिण्णा ॥२२६॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरण के प्रथम समयमें अपूर्वकरणके चरमसमय सम्बन्धी स्थितिखण्ड, स्थितिबन्धापसरण, अनुभागखण्डसे अन्य हो (विलक्षण ही) स्थितिखण्ड, स्थितिबन्धापसरण, अनुभागखण्ड प्रारम्भ करता है। वहीं (अनितिकरणके प्रथमसमयमें) सभी कर्मों के उपशम, निधत्ति और निकाचना इन तीन करणोंकी व्युच्छित्ति होती है। १. ज.ध. पृ. १३ पृ. २२७ । २. ज.ध. पु. १३ पृ. २२८-२६ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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