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१८. ]
लब्धिसार
[ गाथा २२४-२.५ नहीं होता, क्योंकि विशद्धि के द्वारा शुभ प्रकृतियों के अनुभागका खण्डन नहीं होता।
अब अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें गुणणि निर्जराका प्ररूपण करते हैंउदयावलिस्स वाहि गलिदवसेसा अपुरवप्रणियट्टी । सहुमदादो अड़िया गुणमेडी होदि सट्ठाणे ।।२२४।।
अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें उदयावलिसे बाह्य गलितावशेष गणश्रेरिण होती है । गुणश्रेणिनिक्षेप अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकररग-सूक्ष्मसाम्परायके कालसे अधिक है ।
विशेषार्थ-अधिकका प्रमाण उपशान्तकषायके कालका संख्यातवांभाग है। तथा यहीं पर नपुसकवेद आदि अबंध अप्रशस्त प्रकृतियों सम्बन्धी गुणसंक्रमणका भी प्रारम्भ होता है।
अपूर्वकरणमें बन्ध-उदय व्युच्छित्ति को प्राप्त प्रकृतियों को बताने के लिए आगे गाथा सूत्र कहते हैं
पढमे छठे चरिमे बंधे दुग तोस चदुर वोच्छिण्णा। छराणोकसाय उदयो अपुवचरिमम्हि वोच्छिण्णा ॥२२५।।
अर्थ-प्रपूर्वकरणकालसम्बन्धी सातभागों में से प्रथमभागमें निद्रा व प्रचला ये दो, छठे भागमें तीर्थंकर आदि तीस और सातवें भागमें हास्यादि चार; इसप्रकार ३६ प्रकृतियां बन्धसे न्युच्छिन्न हुई तथा अपूर्वकरणके चरमसमय में हास्यादि छह नोकषाय उदयसे व्युच्छिन्न हुई हैं ।
१. ज. प. पु. १२ पृ. २६१ । ज. प. पु. १३ पृ. २२४ व २५१ । ज. ध. मूल पृ. १६४० । ध. पु.
६ पृ. २०६, ध. पु. १२ पृ. १८ । २. परन्तु जयधवलामें गुरपथरिणका प्रमाण अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरणसे साधिक बताया है।
ज. प. पु. १३ पृ. २२४ । परन्तु अल्पबहुत्व के प्रकरण के प्रथम समय में गुणवेणी निक्षेप
अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्परायके कालसे अन्तर्मुहूर्त से अधिक है । ३. ज.ध. पु. १३ पृ. २२४ । ४. बन्धसे व्युच्छिन्न ३० प्रकृतियां-देवति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक-प्राहारक-तैजस-कामरण शारीर,
समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक-पाहारक शरीरांगोपांग, देवगत्यानुपूर्वी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, मादेय, निर्माण और तीर्थकर ।