SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा २२६ ] [ १८६ रहते हुए सातावेदनीय कर्मको गोपुच्छ स्तुविकसंक्रमणद्वारा असातावेदनीयको प्राप्त होती होगी, सो बात भी नहीं है; क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है क्षपरणासार शङ्का- -यदि यहां स्तुविकसंक्रमणका अभाव मानते हैं तो साला और असातावेदनtest सत्त्वयुच्छित्ति अयोगी गुणस्थानके अन्तिमसमय में होनेका प्रसंग आता है । समाधान- नहीं, क्योंकि सातावेदनीय की बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर अयोगोगुणस्थान में सातावेदनीयके उदयका कोई नियम नहीं है । -- शङ्का - इसप्रकार तो सातावेदनीयका उदयकाल अन्तर्मुहूर्त विनष्ट होकर कुछकम पूर्वकोटिप्रमाण प्राप्त होता है । समाधान- नहीं, क्योंकि सयोगकेवलि गुणस्थानको छोड़कर अन्यत्र उदयकालका श्रन्तर्मुहूर्त प्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है' । गाथा २१६ से २२६ सम्बन्धी विशेषकथन : घातियाकमोंके क्षय होआने के अनन्तरसश्य में भ्रष्टबीजके समान चारों अघातिया कर्म शक्तिरहित हो जानेसे युगपत् उत्पन्न होनेवाले अनन्त केवलज्ञान दर्शन व वीर्यसे युक्त, स्वयंभूपनेको आत्मसात् करके जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाते हैं उन्हीं भगवान अर्हतपरमेष्ठीको सयोगोजिन भी कहते हैं, क्योंकि उस अवस्था में बन्धका हेतुभूत तथा वचन और कायके परिस्पन्दलक्षणस्वरूप योगविशेषका सदुभाव होता है । केवलज्ञानादिका स्वरूप कहते हैं-- केवलका अर्थ असहाय है, जिसमें इन्द्रिय, प्रकाश और मनकी अपेक्षा नहीं हो वह असहाय है । जो ज्ञान केवल (असहाय ) हो वह केवलज्ञान है । केवलज्ञान अतीन्द्रिय, सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्टपदार्थोंको जानता है, करण (इन्द्रिय) क्रम और व्यवधानसे रहित है, ज्ञानावरण कर्मका पूर्णरूप से क्षय हो जानेपर उत्पन्न हुआ है. उस प्रकाशसे बढ़कर अन्य कोई प्रकाश नहीं है और उससे अधिक कोई अतिशय नहीं, ऐसा वह केवलज्ञान है । उस केवलज्ञानका जो आनन्त्यविशेषण दिया गया है वह केवलज्ञान अविनश्वरता को बतलाता है। क्षायिकभाव केवलज्ञानके सादि- अपर्यवसित व्यवस्थानको प्रगट करता है सादि- अपर्यवसित है उसीप्रकार केवलज्ञान भी क्षायिक होनेसे । जैसे घटका प्रध्वंसाभाव सादि- अपर्यवसित है । १. घवल पु० १३ पृष्ट ५३-५४ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy