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गाथा २३६ ] क्षपणासार
। २.२ निरोध करते हैं । सूक्ष्मनिगोदनिवृत्तिपर्याप्त अर्थात् प्रानपानपर्याप्सिसे पर्याप्तके सर्वजघन्यउच्छ्वास-नि.श्वासशक्तिसे असंख्यातगुणी संजीपंचेन्द्रियको उच्छ्वास-निःश्वासरूप परिस्पन्दशक्तिका बादर उच्छवास-नि:श्वासरूप से ग्रहण करना चाहिए । उस बादर उच्छवासनिःश्वासका निरोधकरके सूक्ष्मनिगोदियाकी सर्वजघन्यउच्छ्वासशक्तिसे नोचे असंख्यातगुणीहीन सूक्ष्म शक्तिरूप कर देता है, उसके पश्चात् अन्तर्मु इतसे बादरकाययोगके द्वारा बादरकाययोगका निरोधकर सूक्ष्मरूप कर देते हैं, सूक्ष्मनिगोदियाके जघन्यकाययोगसे असख्यातगुणो होनशक्तिसे परिणमा देते हैं । इस सम्बन्धमें दो उपयोगोश्लोक हैं
"पंचेन्द्रियोऽथ संज्ञो यः पर्याप्तो जघन्य योगो स्यात् । निरुणद्धि मनोयोग ततोऽप्य संख्यातगुणहीनं ॥ द्वोन्द्रियसाधारणयोर्वागुच्छ्वासावबो जयति तद्वत् ।
गत का योग, जघन्यपर्याप्तकस्याधः ।।" संज्ञोपञ्चेन्द्रियपर्याप्तके जघन्ययोगका निरोध होकर, उससे भी असंख्यातगुणाहीन मनोयोग हो जाता है । द्वीन्द्रियपर्यापिके जघन्यवचनयोगका निरोध होकर उससे भी असख्यात गुणाहीन वचनयोग हो जाता है । साधारण अर्थात् निगोदियाके जो जघन्यउच्छवास है तथा सूक्ष्म वनस्पतिकाय अर्थात् सूक्ष्मनिगोदिया जीवके जो जघन्य उच्छ्वास है तथा सूक्ष्मवनस्पतिकाय अर्थात् मूक्ष्मनिगोदियाके जो जघन्य काययोग है उन बादर-बादर वचन, उच्छवास व काययोगका निरोध होकर उनसे भी असंख्यातगुणाहोन वचनयोग, उच्छ्वास व काययोग हो जाता है । इसप्रकार यथाक्रम बादरमनोयोग, बादरवचनयोग, बादर उश्वास-निःश्वास व बादरकाययोगशक्तिका निरोध होकर सूक्षापरिस्पन्दशक्ति हो जाती है । इसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् सूक्ष्मकाययोगके द्वारा सूक्ष्ममनोयोगका निरोध करते हैं अर्थात् विनाश करते हैं। यहांपर सूक्ष्ममनोयोगसे, संज्ञोपंचेंद्रियपर्याप्तके सर्वजघन्य परिणामसे असख्यातगुणहीन अवक्तव्यस्वरूप द्रव्यमनोयोगके निमित्त से जो जीवप्रदेशोंमें परिस्पन्द होता है, उसका ग्रहण होता है। उसके पश्चाद अन्तम हुर्तकालके द्वारा सूक्ष्मकाययोगसे सूक्ष्मवचनयोगका निरोध अर्थात् विनाश होता है । द्वीन्द्रियपर्याप्तके सर्वजघन्यवचन योगशक्तिसे नीचे असंख्यातगुणेहोन वचनयोगको सूक्ष्मवचनयोग कहते हैं, उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्मकाययोगके द्वारा सूक्ष्मउच्छ्वासका निरोध (नाश) करता है। यहां भी सूक्ष्मनिगोदियापर्याप्त जीवके सर्व जघन्यउच्छ्वाससे नीचे