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परिभाषा करणोपशामना के भी दो भेद है-देश करणापशामना और सर्वकरपोपशामना । अप्रशस्तोपशमनाधिकरणों के द्वारा फर्म प्रदेशों के एक देश उपशान्त करने को देशकरणोपशामना कहते हैं । सर्व कररणों के उपशमन को सर्व करणोपशामना कहते हैं । अर्थात् उदीरणा, निपत्ति, निकाचित आदि पाठों करणों का अपनीअपनी क्रियापों को छोड़कर जो प्रशस्तीपशामना के द्वारा सर्वोपशम होता है, उसे सर्व करणोपशामना कहते हैं । कषायों के उपशामन का प्रकरण होने से प्रकृत में यही सर्व करणोपशामता विवक्षित है। क. पा० सु० पृष्ठ ७०४ विस्तार इसप्रकार है-उपशामना दो प्रकार की होती है—करणोपशामना और अकरणोपशामना । उनमें से सर्व प्रथम उपशामना पद की व्याख्या करते हुए जव घवला में (पृष्ठ १८७१-७२) बताया है कि उदयादि परिणामों के बिना कर्मों का उपशान्त भाव से अवस्थित रहना इसका नाम उपशामना है। यहां "उदयादि परिणामों के बिना" का अर्थ यह कि किसी भी कर्म का बन्ध होने पर विवक्षित काल तक उदयादि के बिना तदवस्थ रहना इसका नाम उपशामना है। यह उपशामना का सामान्य लक्षण है जो यथासम्भव करणोपशामना प्रौर प्रकरणोपशामना दोनों में पटित होता है । जय धवला में कहा है कि प्रशस्त अप्रशस्त परिणामों के द्वारा कर्म प्रदेशों का उपशमभाव से सम्पादित होना करणोपशामना है प्रधवा करणों की उपशामना का नाम करणोपशामना है। उपशामना, निधत्त, निकाचना प्रादि पाठ करणों का प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करणोपशामना है। अथवा अपकर्षण प्रादि करणों का प्रप्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करणोपशामना है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इससे भिन्न लक्षण वाली प्रकरणोपशामना है । प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामों के बिना जिन फर्म प्रदेशों का उदय काल प्राप्त नहीं हुमा है उनका उदमरूप परिणाम के बिना अवस्थित रहना प्रकरगोपशामना (अनुदीर्णोपशामना) है । यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
(जयपवला पृष्ठ १८७२ प्रथम पेरा) परन्तु देशकरणोपशामना में प्रशस्त परिणामों को निमित्तता है । कहा भी हैसंसार के योग्य प्रप्रशस्त परिणाम निमित्तक होने से यह (देश करणोपशामना) अप्रशस्त उपशामना कही जाती है । यह संसार प्रायोग्य प्रप्रशस्त परिणाम निमि. तक होती है यह प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि नत्यन्ततीव संक्लेश से ही प्रप्रशस्त उपपाामना, निधत्त और निकाचना करणों की प्रवृत्ति देखी जाती है तथा क्षपक