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________________ गाया १-५ ] क्षपणासार [३ मोक्षपणा है, क्योंकि दर्शनमोहका क्षय किये बिना क्षपकश्रेणीका आरोहण असम्भव है | दर्शनमोहकी क्षपणा भी अनन्तानुबन्धीको विसंयोजना पुरस्सरा है अर्थात् अनन्तानुबन्धकी विसंयोजना हो चुकनेपर ही दर्शनमोहकी क्षपणा सम्भव है, अन्यथा दर्शन मोहकी क्षपणा प्रारम्भ हो नहीं सकती । इसका कथन दर्शनमोहक्षपणाधिकारमे हो चुका है सम्यविस्तार के भय से उनका यहां पुनः कथन नहीं किया गया है । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी और दर्शनमोहक्षपणासम्बन्धी क्रियाविशेष समाप्त हो जानेपर क्षपकश्रेणिपर आरोहण के लिए प्रमत्त अप्रमत्तगुणस्थान में साता व असाता बन्धके प्रावर्त ( परिवर्तन ) सहस्रोंबार करके प्रमत- अप्रमत्तगुणस्थान में सहस्रोंबार गमनागमन करके क्षपकश्रेणिकी प्रायोग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होकर क्षपक श्रेणि चढ़नेवाले के पूर्व में अधःकरणादि तीन विशुद्धपरिणामवालोंकी एक पंक्ति होती है, क्योंकि इनके बिना उपशमन व क्षपणक्रयाका होना असम्भव है। अधःकरणादि तीन विशुद्धपरिणामकालों में प्रथम अधःप्रवृत्तकरणकाल, द्वितीय अपूर्वकरणकाल और तृतीय अनिवृत्तिकरणकाल है । 'इन तीनों में से प्रत्येकका काल अन्तर्मुहूर्त है । ये तीनोंकाल परस्पर संबंधित हैं और ऊर्ध्वरूप एक श्रेण्याकारसे विरचित है। दर्शनमोहकी उपशामनायें अधःप्रवृत्तकरण आदिका लक्षण तथा तत्सम्बन्धी क्रियाओंका कथन किया गया है वैसी ही प्ररूपणा यहां भी करना चाहिए, क्योंकि दोनों में कोई विशेषता नहीं है, किन्तु क्षपकश्रेणिसे पूर्व उपशामना आदिमें होनेवाले अधः प्रवृत्तकरण आदिके कालसे क्षपकश्रेणि सम्बन्धी अधः प्रवृत्तकरणआदिका काल असख्यातगुणा हीन है, क्योंकि खड्गधाराके समान शुद्धतर परिणामों में चिरकालतक ठहरना सम्भव नहीं है । उपशामनादिसम्बन्धी परिणामों से क्षपकश्रेणिसम्बन्धी परिणाम अनन्तगुणे विशुद्ध पाए जाते हैं । सातिषायमप्रमत्त नामक सप्तमगुणस्थान में क्षपकश्रेणिसम्बन्धी अधःप्रवृत्तकरण होता है । १. एदासि च पादेक्कमंतो मुहुत्तपमारणावण्णिाणं समयभावेणेगसेढीए विरइदार्ण लवखाविहाणं जहा दंसण मोहोवसा मरणाए अधापवत्तादिकरणाणि णिरुभियूण परुविद तहा एत्थ विपरूवियव्यं, बिसेसाभावादो । वरि हट्टिमाते सकिरियासु पडिबद्ध अधापवत्तादिकरणद्धाहिती एत्थतरणअधापवत्तकरणादिअढाओ असंखेज्जगुणहीगाओ सुद्धयर परिणामेसु खग्गधारासरिसेसु चिरकालमवाणासंभवादो । ( जयधवल मूल पू० १६३६ ) । २. किन्तु घ० पु० १२ पृ० ७८ पर गाया नं० ८ में यह काल संख्यातगुणा हीन कहा है ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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