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गाथा २१४ ]
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काल है, क्योंकि इतने कालके बिना प्रथम स्थिति में किये जानेवाले कार्य पूर्ण नहीं हो सकते । क्रोधोदयवाला क्षपक जिसकालमें अश्वकर्णकरण करता है उसीकालमें मायोदयोक्षपक क्रोधका क्षय करता है । क्रोधोदयोक्षपक जिस काल में कृष्टियां करता है उस काल में मायोदयवाला क्षपक मानका स्पर्धक रूपसे क्षय करता है । क्रोधोदयीक्षक जिसकाल में क्रोधकी तीन संग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है उसकालमें मायोदयवाला क्षपक संज्वलनमाया व लोभका अश्वकर्णकरण और अपूर्वस्पर्धक करता है । सहकारीकारण कषायोदय में भेद होनेपर नानाजीवोंके अनिवृत्तिकरणपरिणाम भिन्न-भिन्न स्वरूपसे हो जाते हैं । क्रोधोदयवाला क्षपक जिसकालमें मानकी तीन संग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है उसकालमें मायोदयबाला क्षपक संज्वलनमाया और लोभकी छह कृष्टियोंकी रचना करता है । क्रोधोदयोक्षपक जिस काल में मायाकी तीन संग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है उसी काल में मायोदयवाला लपक मायाकी तीन संग्रहकृष्टियों का क्षय करता है इसमें कोई अन्तर नहीं है तथैव लोभके क्षपण में भी कोई अन्तर नहीं है । पुरुषवेदसहित लोभोदयसे क्षपकरण चढ़नेवालेकी विभिन्नताका कथन करते हैं
क्षपणासार
जबतक अन्तर नहीं करता तबतक कोई भेद नहीं है । अन्तर करनेके पश्चात् लोभको प्रथम स्थिति होती है जिसका प्रमाण कोषकी प्रथमस्थिति में क्रोध, मान व माया क्षपणाकाल, अश्वकर्णकाल और कृष्टिकरणकाल मिलानेसे उत्पन्न होता है । कोवोदयीक्षपक जिस काल में अश्वकर्णकरण करता है उसकालमें लोभोदयवाला क्षपक कोषका क्षय करता है । क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमय में कृष्टियां करता है उससमय में लोभोदयोक्षपक मानका क्षय करता है । क्रोधोदयी क्षपक जिससमय क्रोधका क्षय करता है उसी काल में लोभोदयोक्षपक मायाका क्षय करता है । क्रोधोदयवाला क्षपक जिस समय मानका क्षय करता है लोभोदयीपक उससमय अश्वकर्णकरण करता है । यहांपर एकसंज्वलन लोभकषाय है । यद्यपि संज्वलनलोभकषायके अनुभागका अश्वकर्ण आकार से विन्यास होना सम्भव नहीं है तथापि अनुभागका विशेषघात होकर अपूर्वस्पर्धक विधानकी अपेक्षा अश्वकर्णकरण कहने में कोई विरोध नहीं है। क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमय मायाका क्षय करता है उससमय लोभोदयी क्षपक लोभकषायके पूर्व व अपूर्वस्पर्धकों की अपवर्तन करके लोभकी तोन संग्रहकृष्टियोंको करता है, क्योंकि शेष कषायोंका क्षय हो चुका है । क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमय लोभका क्षय करता है उसी