________________
गाथा २६२ ]
लब्धिसार
[ २०७
स्थितिबन्ध तो सातों ही कर्मोंका होता है । संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके होने पर सात नोकषायोंके उपशामना कालका संख्यातवांभाग व्यतीत होता है । तत्पश्चात् नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध असंख्यातवर्षसे घटकर एकबारमें संख्यातवर्ष प्रमाण हो जाता है। अब सभी कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यातवर्ष प्रमाण होता है । इस स्थितिबन्ध सम्बन्धी अल्पबहुत्व इसप्रकार है
मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प है। उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे नाम व गोत्रकर्मका स्थितिबंध संख्यातगुणा है, उससे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे प्रागे प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर संख्यात गुणा हीन अन्य स्थितिबन्धका प्रारम्भ करता है । इस क्रमसे हजारों स्थितिबन्धों के व्यतीत होने पर पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें सात नोकषाय सर्वात्मना उपशान्त हो जाते हैं। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदके एकसमय कम दो आवलिप्रमारण समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहते हैं, क्योंकि जो अन्तिम श्रावलिमें बंधे हैं उनका बन्धावलिकाल अभी व्यतीत नहीं हुआ और जो एक समयकम द्विचरमावलिमें बंधे हैं उनका उपशमनाबलिकाल अभी पूर्ण नहीं हुआ।
द्विचरमावलिके प्रथमसमयमें जो समयप्रबद्ध बंधा था सो बंधावलि बीत जाने पर चरमाबलिके प्रथम समयसे लगाकर प्रत्येक समयमें एक-एक फालिके उपशमन द्वारा चरमावलिके अन्तिमसमय तक सर्वद्रव्य उपशमन हो जाता है । द्विचरमावलिके द्वितीय समयमें जो कर्मबन्ध हुअा था उसको बन्धावलि, चरमावलिके प्रथम समयतक रहती है | अतः चरमाव लिके द्वितीय समयसे लगाकर प्रतिसमय एक-एक फालिके उपशमन द्वारा चरमावलिके अन्त समय पर्यन्त अन्य फालि तो उपशान्त हो जाती है, किन्तु एक फालि शेष रह जाती है । इसीप्रकार द्विचरमावलिके तृतीयादि समयोंमें बंधे कर्मोंकी बंधावलि बीत जाने पर चरमावलिके तृतीय प्रादि समयोंसे लगाकर अन्तिम समय पर्यन्त अन्य फालियां तो उपशमित होती हैं, किन्तु क्रमशः दो-तीन-चार आदि फालियां नहीं उपशमित होती हैं। द्वि चरमावलिके अन्तिम समयमें बंधे समयप्रबद्धकी एक फालि उपशमित होती है, शेष फालियां नहीं उपशमतीं। इसप्रकार द्विचरमावलि का एक समयकम आवलिप्रमाण और चरमावलिका सम्पूर्ण प्रावलिप्रमाण द्रव्य पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें अनुपशान्त रहता है । १. ज.ध. पु. १३ पृ. २८२-२८५ ।