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२६४ ] क्षपणासारचूलिका
[ गाथा ६.७ संक्रमण माया, मान, कोधमें अथवा मायाका संक्रमण क्रोध-मान में या मामका संक्रमण क्रोधमें नहीं होता है । बन्धप्रकृतिमें ही संक्रमण होता है
'जो जम्हि संछुहंतो णियमा बंधम्हि होई संछुहणा । बंधेण हीणदरगे अहिए वा संकमो ण त्थि ॥६॥
अर्थ-जो जीव जिसप्रकृतिका संक्रमण करता है वह नियमसे बध्यमान प्रकृति में संक्रमण करता है । जिस स्थितिको बांधता है उसके सदृशस्थिति में अथवा उससे होन स्थिति में संक्रमण करता है, किन्तु अधिक स्थिति में संक्रमण नहीं करता।
विशेषार्थ- इस गाथा में बध्यमान प्रकृतियों में संक्रमण किये जाने वाली बध्यसान या अबध्यमान प्रकृतियोंका किसप्रकार संक्रमण होता है, यह बतलाया गया है । क्षपकश्रेणी में जो जीव जिस विवक्षित प्रकृति के कर्मप्रदेशोंको उत्कीर्णकर जिस प्रकृति में संक्रमण करता है नियमसे बन्धसदृशमें संक्रान्त करता है । यहां पर 'बन्ध' से साम्प्रतिकबन्धकी अनलियन का ग्रहण होता है, को स्थितिमा प्रति उसकी ही प्रधानता है । अर्थात् इससमय बंधनेवाली प्रकृतिको जो स्थिति है उसमें उसके समान प्रमाणवाली विवक्षित संक्रम्यमान प्रकृति के प्रदेशानको उत्कीर्णकर संक्रान्त करता है । 'बन्धेण होगदरगे' इसका अभिप्राय यह है कि बन्धनेवाली अग्रस्थिति से एकसमयादि कम अघ. स्तन बन्धस्थितियों में भी जो आबाधाकालसे बाहर स्थित है, अधस्तन प्रदेशानको स्व. स्थान या परस्थानमें उत्कोर्णकर संक्रमण करता है, किन्तु वर्तमान में बन्धनेवाली स्थितिसे उपरिम सत्त्वस्थितियों में उत्कर्षण संक्रमण नहीं होता है। यह 'अहिए बा संकमो णत्यि' का अर्थ है । आबाधाकालका परप्रकृतिरूप संक्रमण समस्थिति में प्रवृत्त होता है। क्षपकश्रेणिमें बध्यमान और अबध्यमान प्रकृतियोंको यथासम्भव संक्रमण करता हुआ बध्यमान प्रकृतियोंके प्रत्यग्नबन्धस्थितिसे अधस्तन और उपरितन स्थितियों में से समस्थितिमें संक्रमण करता है।
*बंधेरण होइ उदओ अहिय उदएण संकमो महियो । गुणसेढि अणतगुणा बोद्धव्यो होइ अणुभागो ॥७॥
१. जयधवल मूल पृष्ठ २२७३, क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६५ गा० १४० । २. जयधवल मूल पृष्ठ १९८६-६०। ३. जयधबल मूल पृष्ठ २२७४; क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ गा० १४४ ।