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________________ १३० क्षपणासार [गाथा १४४ प्रकार कृष्टिकरणकालके चरमसमयपर्यन्त प्रतिसमय कष्टियों में निःसिंच्यमान प्रदेशपिण्ड विशुद्धिके माहात्म्यसे असंख्यातमुगा-असंख्यातगुणा होता जाता है। वर्तमानसमय में निर्वतित अपूर्व कृष्टि की चरमकृष्टि में निसिक्त प्रदेशाग्रसे पूर्व समय में की गई पूर्वकृष्टियों की जघन्यकृष्टि में नि:सिंच्यमान प्रदेशाग्न असंख्यातभागहीन होता है, क्योंकि उसमें पूर्व अवस्थितद्रव्य इतना हो होन दिवाई देता है। तदनन्तर अनन्त भागहानिरूपसे यथाक्रम जाकर पुनः पूर्वसमयमें की गई संग्रहकष्टिसम्बन्धी चरिमष्टि में निसिक्त प्रदेशाग्रसे वर्तमान समय में द्वितीयसंग्रहकृष्टिने नोचे को मई अपूर्व अवयकामे दिया जानेवाला प्रदेशपिण्ड असंख्यात भाग अधिक होता है। शेष अपूर्वकृष्टियों में अनन्तभागहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है, इसोप्रकार आगे भी जानना चाहिए । पुनः दृश्यमानप्रदेशाग्र सर्वत्र अनन्तभागहीनरूपसे रहता है। इसप्रकार यहक्रम कृष्टिकरणकालके द्वितीयसमयसे चरिमसमयपर्यन्त जानना चाहिए, किन्तु कृष्टिबेदककालमें ऐसो विधि नहीं होतो, क्योंकि कृष्टिवेदककालको अपूर्वकृष्टियों में नि:सिंच्यमान प्रदेशाग्र पूर्वकृष्टिप्रदेशपिंडसे असंख्यातवेंभागप्रमाण होता है, उससे कृष्टिवेदककालके प्रथमसमय में निर्वत्यं मान अपूर्वकृष्टियों की चरमकृष्टि में निर्तित प्रदेशाग्रसे पूर्व कृष्टिको जघन्यकृष्टिके प्रथमसमयमें प्रदेशाग्न असंख्यातगुणाहीन होता है, अन्यथा पूर्व अपूर्वकृष्टियों की सधिमें एकगोपुच्छकी उत्पत्ति वहीं होगी। अतः कृष्टिकरणविधि और कृष्टिवेदकविधिमै इसप्रकारको विशेषता दिखाने के लिए श्रेणीप्ररूपणा करते हैं कृष्टिवेदककालके प्रथम समय में पूर्वानुपूर्वी को अपेशा लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टि के नीचे अपकषित प्रदेशाग्रके द्वारा जो अपूर्वकृष्ट्रियां रची जाती हैं, उनमें से जघन्यकृष्टिमें बहुत प्रदेशाग्र दिया जाता है तथा उसके आने चरमकृष्टिपर्यन्त अनन्तवेंभागहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है । उसके आगे अपूर्वकृष्टि को चरमकृष्टि में पतित प्रदेशानसे लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिको पूर्वकृष्टिसम्बन्वी जघन्य कृष्टि में असंख्यातगुणाहीन प्रदेशान दिया जाता है, द्वितोयपूर्वकृष्टिमें उससे अनन्तभागहोन द्रव्य दिया जाता है और यह अनन्तभागहोनरूप द्रव्यका क्रम प्रथमसंग्रहकृष्टिको चरमकृष्टिपर्यन्त जानना। पुनः उस प्रयमसंग्रहकृष्टिको चरमकृष्टि में पतित प्रदेशाग्रसे द्वितीयसंग्रहकृष्टिके नोचे रची जानेवाली अपूर्वकृष्टियोंको जघन्यकृष्टि में असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र दिया जाता है । उससे आगे अपूर्व चरमकृष्टिपर्यन्त अनन्तभागहीनरूप क्रमसे द्रव्यका सिंचन होता है । पुनः अपूर्वचरमकृष्टि में निसिंचित प्रदेशाग्रसे, पूर्वनिर्वतित द्वितोयसंग्रहकष्टिको अन्तर
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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