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लब्धिसार
[ गाथा ३१ बद्घायुष्क है तो उसके भुज्यमान व बद्धयमानायुके बिना शेष दो आयुका सत्त्व नहीं होता । जिसने दूसरे या तीसरे नरककी आयुका बन्ध करनेके पश्चात् तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध किया है वह जीव एक अन्तर्मुहुर्त के लिए मिथ्यात्वमें जाता है' पुनः बेदकसम्ययत्व प्राप्त कर लेता है, क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवेंभागपर्यन्त वेदकसम्यक्त्वका उत्पत्तिकाल है । वेदकसम्यक्त्वोत्पत्तिकालके पश्चात् प्रथमोपशमसम्यक्त्वका ग्रहण हो सकता है । आहारकचतुष्कके उद्वलनाकालसे वेदकसम्यक्त्वोत्पत्तिकाल बड़ा है अतः श्राहारकचतुष्कको उद्वलना किये बिना प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं हो सकता । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख किसी जीवके सम्यक्त्वप्रकृतिका सत्त्व नहीं होता और किसी जोत्रके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति इन दोनों ही का सत्त्व नहीं होता अथवा दोनोंका सत्त्व होता है ।
प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीवके आठों ही मूलप्रकृतियोंका सत्त्व होता है । उत्तरप्रकृतियोंमें भी ज्ञानावरणको पांच, दर्शनावरणकी नौ, वेदनीयकी दो, मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व, १६ कषाय और नव नोकषाय ये छब्बीस प्रकृतियां सत्कर्म रूपसे होती हैं, क्योंकि अनादिमिय्यादृष्टि तथा २६ प्रकृतियोंके सत्कर्मवाले सादि मिथ्यादृष्टिके इनका सद्भाव पाया जाता है । अथवा सादिमिथ्यादष्टिके सम्यक्त्वप्रकृतिके बिना मोहनीयकर्मकी २७ प्रकृतियां सत्कर्मरूपसे होती हैं, क्योंकि सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलनाकरके उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके उनके होने में कोई विरोध नहीं है । अथवा सम्यक्त्वप्रकृतिके साथ २८ प्रकृतियां सत्कर्मरूपसे होती है, क्योंकि वेदकसम्यक्त्वके योग्यकालको उल्लंघकर जिसने सम्यक्त्वप्रकृतिको पूर्णरूपसे उद्घ लना नहीं की है, ऐसे उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके उक्तप्रकारसे २८ प्रकृतियों का सद्भाव देखा जाता है। आयुकर्मको एक या दो प्रकृतियां सत्कर्मरूपसे होती हैं । जिसने परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध किया है, उसके प्रायुकर्मक्री को प्रकृतियां होती हैं और जिसने परभवसम्बन्धी प्रायुका बन्ध नहीं किया, उसके भुज्यमानायुकी एकप्रकृति होती है । नामकर्मकी चारगति, पांचजाति, औदारिक-वैक्रियिक-तैजस व कार्मणशरीर,
१. भ. पु. ८ पृ. १०४-प्रथमपृथिव्यां तोयंकरप्रकृतियुक्तमिथ्यात्वीनारकीनामभावः । २. गो. क. गा. ६१५। ३. गो. क. गाथा ६१५ तथा घ. पु. ५ पृ. ६-१० और ३३-३४ । ४. गो. क, गा. ६१३ तथा ज.ध. पु. १२५, २०६ ।