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लब्धिसार
[ गाथा १९१ इससे आगे देशसंयमके समान सकलसंयम में होने वाली प्रक्रिया विशेष का निर्देश करते हैं
एत्तो उवरि विरदे देसो वा होदि अप्पबहुगोत्ति । देसोति य तटाणे विरदो ति य होदि वत्तव्वं ॥१६॥
अर्थ-यहां से ऊपर (आगे) अल्पबेहत्व पर्यन्तं, पहले देशचारित्रमें जैसा कथन किया है वैसा ही सर्वकथन यहां { सकल चारित्रके सम्बन्ध में ) भी जानना, किन्तु इतनी विशेषता है कि उस कथनमें जहां देशचारित्र कहा है उसके स्थान पर सकलचारित्र कहना चाहिए ।
विशेषार्थ-संयम ग्रहणकें प्रथम समयसे अन्तमुहतकालतक चारित्रलब्धिसे एकान्तानुवृद्धिको प्राप्त होता है, क्योंकि अलब्धपूर्व संयमको प्राप्त होनेसे संवेगसम्पन्न मनुष्यके एकान्तानुवृद्धि पाई जाती है । प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनन्तगुगी विशुद्धिसे प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कर्मस्कन्धोंकी निर्जरा होती है । जबतक एकांतानुवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता है तबतक आयुकर्मको छोड़कर शेष सर्व कर्मोके सहस्रों स्थितिकांडकों और सहस्रों अनुभागकांडकोंका घात होता है। एकान्तानुवृद्धि कालतक इस जीवकी संज्ञा 'अपूर्वकरण' होती है, क्योंकि अपूर्व-अपूर्व परिणामोंके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होने वाले जीवके 'अपूर्वकरण' संज्ञाकी सिद्धि में कोई बाधा नहीं है अथवा अपूर्वकरणकालके समाप्त हो जानेपर भी अपूर्वकरणके समान प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व परिणामों के द्वारा स्थितिघात आदि कार्य होते हैं ।
एकान्तानुवृद्धि काल समाप्त होनेपर तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तसंयत होता है । यहां स्थितिघात और अनुभागधात नहीं है, परन्तु जबतक संयत है तबतक अवस्थित पायामवाली गुणश्रेणि होती है । इतनी विशेषता है कि विशुद्धिको प्राप्त हुआ असंख्यातगणी, संख्यातगुणी, संख्यातभाग अधिक या असंख्यातवेंभाग अधिक द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेणि करता है । संक्लशको प्राप्त हुआ इसीप्रकार गुणहीन या विशेषहीन द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेरिण करता है तथा अवस्थित परिणामवाला अवस्थित द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेरिण करता है। परिणामोंके अनुसार होनेवाली गुणश्रेरिणनिर्जराके परिणामोंकी वृद्धि व हानि वश ही प्रवृत्ति होती है । १. ज घ. पु. १३ पु १६६ । २. ज. प. पु. १३ पृ. १३०, ज. ध. पु. १३ पृ. १६७, घ. पु १२ पृ. ७६ |