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गाथा १६२ ] लब्धिसार
[ १५६ अब जघन्य संयतके विशुद्धि सम्बन्धो अविभाग प्रतिच्छेदों को संख्या बताते हैंअवरे विरदवाणे होति अणंताणि फड्ढयाणि तदो । छट्ठाणगया सब्वे लोयाणमसंख छट्ठाणा ॥१६२॥
अर्थ-सर्व जघन्य संयमलब्धिस्थानमें अनन्तस्पर्धक होते हैं । इसके पश्चात् सर्वोत्कृष्ट स्थान पर्यन्त षट्स्थान पतित वृद्धियोंके द्वारा असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित सर्वस्थान होते हैं।
विशेषार्थ-यह जघन्य सकलसंयमल ब्धि सर्व जीबोसे अनन्तगुणे अनन्त अविभागोप्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न हुआ है । ये ही अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद अनन्त स्पर्धक कहे जाते हैं, क्योंकि यहां पर स्पर्धक शब्द अविभागप्रतिच्छेदोंका वाची स्वीकार किया गया है । अथवा यह जघन्य लब्धिस्थान मिथ्यात्वमें गिरनेके सम्मुख हुए संयतके अन्तिम समयमें कषायोंके अनन्त अनुभागस्पर्धकों के उदयसे उत्पन्न हुआ है। इसप्रकार कार्यमें कारणके उपचारसे अनन्त स्पर्द्धक कहे गये हैं ।
___जघन्य लब्धिस्थानको सर्व जीवराशि प्रमाण भागहारसे भाजितकर एक भागको मिलानेपर जघन्य सकलसंयम लब्धिस्थानसे अनन्तवां भाग अधिक होकर द्वितीय लब्धिस्थान होता है । जघन्य लब्धिस्थानसे अंगुलके असंख्यातवेंभागप्रमाण अंगन्तभागवृद्धि कांडक जाकर असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असंख्यातभागवृद्धिकाण्डक जाकर संख्यातभाग वृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । तत्पश्चात् संख्यातभागवृद्धिकाण्डक जाकर संख्यातगुण वृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। उसके बाद संख्यातगुणवृद्धि काण्डक जाकर असंख्यातगुण वृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असंख्यातगुण वृद्धि कांडक जाकर अनन्तगुणवृद्धिस्थान होता है, तब उस स्थान की कषाय उदयस्थान अनन्तगुणाहीन होता है, क्योंकि अनन्तगुणहीन कषायउदयस्थानोंके बिना अनन्तगुरणस्वरूप सकलसंयम लब्धिस्थान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। यह एक षट्स्थान है। इसप्रकार असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान प्रतिपातस्थान हैं । प्रतिपात लब्धिस्थानोंका उल्लंघनकर असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित प्रतिपद्यमान स्थान हैं। ये पिछले स्थानोंसे असंख्यातगुणे हैं, उससे भी असंख्यातगुणे अप्रतिपात व अप्रतिपद्यमानस्थानोंके योग्य असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्धानपतित स्थान होते हैं । प्रतिपात प्रादि तीन प्रकार के ये
१. ज.ध. पु. १३ पृ. १४३-१४४ ।