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लब्धिसार
[ गाथा १०५-१८६
जघन्य देशसंयम के अविभागी प्रतिच्छेदों के प्रमाणका कथन करते हुए देशसंयमके मेवों व उसमें अन्तरका कथन करते हैं
१.
१५२]
भवरे लट्ठाणे होंति अाणि फट्टयाणि तदो । बाणगदा सत्रे लोयाणमसंखट्ठाणा ॥ १८५ ॥ तत्थ य पडिवाय गदा पविचगदाति श्रणुभयगदाति । उरुवरिद्विठाणा लोयाणमसंखडाणा || १८६ ॥
अर्थ- सर्व जघन्य देशसंयम लब्धिस्थान में अनन्त स्पर्धक होते हैं । षट्स्थानपतित वृद्धियोंके द्वारा असंख्यात लोक प्रमाण षट्स्थानपतित सर्व लब्धिस्थान होते हैं ।। १८५ ।। '
देश संयम लब्धिस्थान तीन प्रकारके हैं - १. प्रतिपातगत २ प्रतिपाद्यमानगत ३. अनुभयगत । सधिस्थान उपर्युपरि होते हुए असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानपतित हैं ।। १५६ ।।
विशेषार्थ - - यह जघन्य देशसंयम लब्धिस्थान सब जीवोंसे अनन्तगुणे अनन्त प्रविभागी प्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न हुआ है। ये ही अनन्त प्रविभागीप्रतिच्छेद अनन्त स्पर्धक कहे जाते हैं, क्योंकि यहां पर स्पर्धक शब्द अविभागप्रतिच्छेदों का वाची स्वीकार किया गया है । अथवा यह जघन्य लब्धिस्थान मिथ्यात्व में गिरने के सम्मुख हुए संयतासंयतके अन्तिम समय में कषायोंके अनन्त अनुभाग स्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न हुआ है, इसप्रकार कार्यमें कारणके उपचारसे "अनन्तस्पर्धक" कहे गये हैं ।
जघन्य लब्धिस्थानको सर्व जीवराशिप्रमाण भागहारसे भाजितकर वहां प्राप्त एक भागको मिलाने पर जघन्य देशसंयमलब्धिस्थानसे अनन्तवभाग अधिक होकर दूसरा लब्धिस्थान उत्पन्न होता है । जघन्य लब्धिस्थानसे अंगुल के संख्यातवेंभाग प्रमाण अनंतभागवृद्धि-कांडक जाकर प्रसंख्यात भागवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असंख्यात भागवृद्धrush जाकर संख्यातभागवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् संख्यात भागवृद्धिकांडक जाकर संख्यातगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । तत्पश्चात् संख्यातगुणवृद्धिकांडक जाकर प्रसंख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असंख्यातगुणवृद्धि जाकर अनन्तगुणवृद्धिस्थान होता है तब कषायोदयस्थान अनन्तगुणा हीन होता है, क्योंकि अनन्तगुणेहीन
ध. पु. ६ पृ. २७६ दूसरा पेरा |