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________________ २२२] क्षपणासार [गाथा २५६ समय प्राप्त होनेतक जाता है और यहां क्षीणकषाय के चरमसमयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय इन तीनकर्मोंका युगपत् नाश करता है, क्योंकि तीनधातिया कोका निर्मूल विनाश करना एकत्ववितर्कावीचार ध्यानका फल है । शंका-एकत्ववितर्कावीचारध्यान के लिए 'अप्रतिपाति' विशेषण क्यों नहीं दिया। समाधान-नहीं, क्योंकि उपशान्त कषायजीवके भवक्षय और कालक्षयके निमित्तसे पुनः कषायोंको प्राप्त होनेपर एकत्ववीतर्क-अबीचारध्यानका प्रतिपात देखा जाता है। शंका--यदि उपशान्तकषाय गुणस्थानमें एकत्ववितकं अवीचार ध्यान होता है तो 'उवसंतो दु पुचत्तं' इत्यादि वचन के साथ विरोध आता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि उपशान्तकषायगुणस्थानमें केवल पृथक्त्वयोचार ध्यान हो होता है ऐसा कोई नियम नहीं है । शङ्का-पृथक्त्ववीतकवीचार प्रथमशुक्लध्यान व एकत्ववितर्कावीचारनामक शुक्लध्यान इन दोनोंका काल परस्पर समान है या हीनाधिक है ? समाधान---एक त्ववितर्कअबीचार शुक्लध्यानका काल अल्प है और पृथक्त्ववितर्कवीचारनामक शुक्लध्यानका काल अधिक है। शंका-पृथक्त्ववितर्कवीचार प्रथमशुक्लध्यानमें योगका संक्रमण होता है और एकत्ववितर्क-अवीचारमें योगसंक्रान्ति नहीं होती इसमें क्या कारण है ? समाधान--लक्षणभेदसे योगसंक्रमण व असंक्रमका भेद हो जाता है । प्रथमशुक्लध्यान सबी चार होनेसे उसमें अर्थ, व्यंजन (शब्द) और योगको संक्रान्ति होती है । कहा भी है--जिस ध्यान में अर्थ-व्यंजन-योगमें संक्रान्तिरूप वीचार हो वह एकत्ववितर्कअवीचारध्यान है। । १. धवल पु. १३ पृष्ठ ७६-८० । 'तिणं घादिकम्माणं रिशम्मूलविणास फलमेयत्तविदक्कअवीचार झाग" (धवन पु० १३ पृष्ठ ५१) २. धवल पु० १३ पृष्ठ ८१ ॥ ३. जयधवल पु० १ पृष्ठ ३४४ व ३६१ ।
SR No.090261
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, Philosophy, & Religion
File Size16 MB
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