________________
गाथा ११७-११६ ] लब्धिसार
१६. चारित्रमोहोपशामना और चारित्रमोहक्षपणा में अन्तरकरण सम्भव है, । अन्यत्र नहीं ऐसा नियम है । निवृत्तिकरणम हजारों स्थितकाग्डक और हजारों अनुभागकांडकों के हो जानेपर अनिवृत्तिकरणकालका संख्यात बहुभाग बीत जाता है। पश्चात् विशेष घात वश अनन्तानुबन्धी सत्कर्म असंज्ञियोंके स्थितिबन्ध के समान हो जाता है। उसके पश्चात् संख्यातहजार स्थितिकाण्डको के होने पर स्थिति सत्कर्म चतुरिन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धके समान होता है । इसप्रकार त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, एकेन्द्रिय के स्थितिबन्धके समान स्थितिसत्कर्म हो जानेपर पुनः पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म हो जाता है। तत्पश्चात् शेष स्थितिके संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिकांडक को ग्रहण करता हुआ अनन्तानुबन्धीका दुरापकृष्टिप्रमाण सत्कर्म करके पश्चात् शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागका घात करता हुअा संख्यातहजार स्थितिकांडको के जाने पर अनन्तानुबन्धी के उदयावलि बाह्य समस्त स्थितिसत्कर्मको अनिवृत्तिकरण के अन्तिमसमय में, पल्योपमके असंख्यातवैभागप्रमाण आयामबाले अन्तिम स्थिति कांडक सम्बन्धी अन्तिमफालिरूप से बध्यमान शेष कषायों और नो कषायोंमें संक्रमित कर प्रकृत क्रियाओं को समाप्त करता है । इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल तक विश्राम करता है।
अब अनन्तानुबन्धोकी विसंयोजना वाले जीवके विसंयोजनाके अनन्तर होने बाले कार्यको ११ गाथाओं द्वारा कहते हैं
अंतोमुत्तकालं विस्समिय पुणोवि तिकरणं करिय । अणियट्टीए मिच्छं मिस्सं सम्मं कमेण णासेइ ।।११७॥ 'मणिपट्टिकरणपडमे दंसणमोहस्स लेसगाण ठिदी।
सायरलवपुधत्तं कोडीलक्खगपुधत्तं च ॥११८।। "अमणंठिदिसत्तादो पुत्तमेचे पुधत्तमेत्ते य । ठिदिखंडेय हवंति ह च उ ति वि एयक्ख पल्लटिदी ॥११॥
대
१. ज. प. पु. १३ प्रस्तावना पृ. २० ; ज. ध. पु. १३ पृ. २०० । २. ज. प. पु १३ पृ. २००-२०१; ध. पु. ६ पृ २५१ । ३. ज ध. पु. १३ पृ. ४१ ; ध. पु. ६ पृ. २५४ । ४. ज ध. पु. १३ प. ४१-४२-४३ ।